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कल, आज और कल / पल्लवी मिश्रा

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बीते हुए कल की स्मृतियाँ
आज की सच्चाई
और आने वाले कल की कल्पना
मुझे अक्सर उलझन में डाल देते हैं
और मैं निर्णय नहीं ले पाती
कौन-सा पल
मेरा सबसे अपना है-
मानती हूँ
जो बीत गया, इक सपना है-
वर्तमान है तो सच मगर क्षणमात्र के लिए ही
फिर तो यह भी
अतीत बन जाएगा,
फिर क्या यह कभी
दुहराकर आएगा?
‘कल’ जो आने वाला है
वह तो पकड़ से बाहर है,
और है अनजान-
फिर भी आते ही
बन जाएगा
वर्तमान-
और फिर अतीत-
यही चक्र सदियों का है
और यही समय की रीत-
फिर कैसे कोई स्थिर करे मन को?
कैसे समझे इस क्षणभंगुर जीवन को?
समय के किस हिस्से को
समझे अपना
और किसे माने केवल सपना?