भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अतृप्त अभिलाषा / पल्लवी मिश्रा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:05, 8 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पल्लवी मिश्रा |अनुवादक= |संग्रह=इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या मेरी कल्पना में
यही रूप था जीवन का?
वर्षों से जिसे सँवारती आ रही हूँ-
जाने कौ-सी बड़ी खुशी है?
जिसे हासिल करने के लिए
रोजमर्रा की
छोटी-छोटी खुशियों को
नकारती आ रही हूँ-
इतनी बेतरतीब होगी मेरी जिन्दगी
सपने में भी मैंने
सोचा नहीं था कभी;
सजी सँवरी और सलीके की
जिन्दगी जीने के लिए
वक्त कब मिलेगा?
आपाधापी और भागदौड़ के
तपते रेगिस्तान में
कब तक चलना होगा?
पाँव तले शीतल जमीं
और सर के ऊपर
दरख्त कब मिलेगा?
अधूरी इच्छाओं की लाश ढोते-ढोते
कन्धे भी झुकने लगे हैं,
अन्तहीन सफर में
दिन-रात चलते-चलते
पाँव भी दुखने लगे हैं।
जो पीछे मुड़कर देखती हूँ
लहूलुहान ख्वाहिशों के बवण्डर हैं-
ख्वाबों के शीश महल की जगह
पथरीले ईंटों के
टूटे-फूटे से खँडहर हैं-
उपलब्धियों के नाम पर
क्या यही कुछ हासिल किया है अबतक
जो पारे की तरह
है अस्थिर और आकारहीन
कि एक छोटी बन्द मुट्ठी में
समा भी न पाए-
और जिनके इधर-उधर
भागते बिखरते कणों को
समेटना तो दूर
कोई गिन भी न पाए-
हर दिन सोचती हूँ
कल से जिन्दगी के प्रति
अपना नजरिया बदल दूँगी
मगर क्या?
वह ‘कल’ आएगा?
या उस ‘कल’ के इन्तजार में
उम्र का बाकी हिस्सा भी
यूँ ही निरर्थक निकल जाएगा?
नहीं...नहीं
मुझे नहीं चाहिए
ऐसी जिन्दगी
जिसमें न खुद खुश रहूँ
न किसी को खुशी दे सकूँ
न चैन से जी सकूँ
न सुकूं से मर सकूँ।