भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भूख का कटोरा / रेणु मिश्रा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:52, 9 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेणु मिश्रा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज कल चिता की आंच पर
पकते हैं कितने भूखे किसान
जो बोते हैं तड़पती भूख के बीज को
धरती के उमसते आंवें में
चढ़ाते हैं धधकते सूरज को जल
करते हैं इंद्र से प्रार्थना
कि बारिश की नर्म बूंदों से
खिल जाये सुनहरी गेंहू की बालियां
मगर उन्हें नहीं पता
कैसे मनाये समय के कुचक्र को
जो भरने नही देता
उनके अनाज की कोठली
उड़ा देता है सर से
गिरवी पड़ा आस का छत्तर
छोड़ जाता है नादान भूखे हाथों में
कुलबुलाता खाली दूध का कटोरा
और चूल्हे की सोई आंच के पास
औंधी पड़ी हुई देकची
अब तो परमात्मा भी नहीं आते
देकची में पड़े एक दाने से
भूखों का पेट भरने!
पर धरती का पूत भूखा रहके भी
नहीं देख पता अपने आस पास
आँखों में लिलोरती भूख
तंग आकर समय के खेले से
खुद ही लगा लेता है फाँसी
या चढ़ा लेता है खुद को
चिता के धधकते चूल्हे पर
भूख मिटाने की चाह में
मिटा लेता है खुद को
पर चिता की भूख है कि
कभी मिटती ही नहीं!!
अब भूख के कटोरे में दर्द भी है!