विस्थापन / रेणु मिश्रा
अपनी धरती पर ही
विस्थापन का दंश सहता
काले कीचट कपड़ों में लिपटा
कोयला निकालता आदमी
खोजता है
अमावस की रात सी अंधेरी खदान में
पूर्णिमा के चाँद सा गोल
रोटी का टुकड़ा
कमज़ोर हाथों से करता है
बार-बार हथौड़े की चोट
धरती के सीने पर
क्योंकि उसे याद आता है
भूख से बिलबिलाते अपने बच्चों का चेहरा
जिनके पेट में दहक रही है
सदियों से जलती कोयले की अंगीठी
लेकिन बस, नहीं है तो
अदहन देने के लिए मुठ्ठी भर अनाज
दिन भर की मेहनत के बाद
मिलती है उसे
पलकों पर झर-झर के उतरती
कोयले की धुंध वाली सफ़ेद साँझ
और, उसके हाथों पर रख दी जाती है
लाचार सी आधी-पौनी दिहाड़ी
जो अपने मालिक से
जिरह करने में भी सहमती है
काले कोयले के काले धन से
उजले हो जाते हैं सफ़ेदपोश
और छोड़ जाते हैं
कोयले की कालिख
उसके हाथों की लक़ीरों में
धरती की गोद में जाकर भी
भूखा ही रहा आदमी!!