दो शब्द / निदा नवाज़
हम ने शब्दों को अर्थ दिये
हम सरगोशियों और
मुस्कुराहटों की भाषा जानते हैं
हम में जीवन की आत्मा में
झाँकने का मनोबल है
हमारे चेतना की डलझील हो
या हमारे विचारों की वितस्ता
हर जगह सपनों के अनमोल मोती
पानी की सतह पर
थिरकते हैं
हमारे हाथों से हर समय
श्रद्धा की घंटियां बजती हैं
और हमारे इतिहास में
एकता,प्यार और मानवता के
मधुर श्लोकों की
मधुधारा बहती है
हमारे संसार में
कहीं नहीं होती है
निष्फल प्रतीक्षा और
टूटे सपनों की बातें
हमारी धरती के पर्वतीय सरोवर में
शेर और बकरी एक साथ
पानी पिते हैं
समय बीता जा रहा है
और कहीं से काले बदल के
आदमख़ोर टुकड़े ने
धूप की धरती को
अपनी चपेट में ले लिया
शहर में दहकते पत्थरों की
वर्षा हुई
सपनों के आकाश में
चांदनी बुझ गई
और अमावस की रात
एक प्रश्न-चिन्ह बनकर
रूहों में बहुत सरे रेगिस्तान
बिछा गई
अपमानित हो गया हमारा इतिहास
हमारी शताब्दियों तक फैली
पूरी पहचान बिखर गई
चेत्तना की डलझील
और विचार की वितस्ता का
सारा पानी
बूंद-बूंद रक्त हुआ
हमारे विवेक धरातल पर
कंटीली झाड़ियाँ उग आईं
डर और पीड़ा
हमारे अंतरमन में
समा गई
और हमारे सपनों के आंगन में भी
बंकर-बस्तियां बनने लगीं
विश्वास का हर प्रकाश बिंदु
और श्रद्धा भरे सभी शलोक
रक्तरंजित हो गये
अब हमारे पास
अर्पण करने को कुछ न बचा
केवल
रुपहली धूप की टूटी आशा
और ये घायल मन के बिखरे टुकड़े
मेरी कविताएँ
जिनको थरथराते हाथों से
रख रहा हूँ आपके हाथों में
इन कविताओं के हर शब्द का है
अक्षर-अक्षर रक्त-भरा।
22 नवम्बर, 1997
निदा नवा़ज़
(कश्मीर)