भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वितस्ता साक्षी रहना / निदा नवाज़

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:20, 12 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निदा नवाज़ |अनुवादक= |संग्रह=अक्ष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वितस्ता तुम साक्षी रहना
कि मेरी आँखों का
काजल
और होंठों की
लाली
तुम्हारे जल के साथ
बह गई।
मेरी छाती पर उगे
चिनार के वृक्ष
जो थके यात्रियों को
थोड़ी देर
अपनी छाया में रखकर
आगे बढ़ने की
प्रेरणा देते थे
जड़ से उखाड़ दिये गये।
मेरे सन्तान के सिर
भरी उपज की भांति
काट दिये गये।
तुम साक्षी रहना
वितस्ता
कि मेरी बेटियाँ
जिनके चहरों से
यहाँ के सेब
रंग चुराया करते थे
बारूदी धुएं में
काली पड़ गई हैं।
और तुम्हारी छाती पर
थिरकती कश्तियाँ
नए-नवेले जोड़ों की
सरगोशियाँ सुनने को
व्याकुल हैं।
तुम साक्षी रहना
कि तुम्हारा निर्मल जल
जो कभी
“हारी-पर्वत” के साथ साथ
शन्कराचार्य के मन्दिर को भी
प्रतिबिम्बित कर देता था
बूंद बूंद रक्त हुआ है।
वितस्ता
तुम इस बात की भी
साक्षी रहना
कि अजनबियों के
भारी बूटों तले
विकृत होकर
मैं
तुम्हारी जननी
धायल घाटी
अपना परिचय खो बैठी।