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जब / निदा नवाज़
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जब...
सपने टूटकर
पीड़ा का रूप धरें
साँस बिखर कर
विनाश का विलाप बने
प्रकाश की कोख से
अन्धकार जन्म ले
विचार के स्रोत
रेंगते-रेंगते
सांप बनकर
डसने का प्रयत्न करें
कलम की जीभ
लिखते-लिखते
बरछी बनकर
सभ्यता के सीने को चीरे
धर्म के पेड़ पर
पाप उग आयें
देवताओं का प्रसाद
विष बनकर
गले में ही अटक जाए
तब विचार की वाणी
विवेक की वाणी
सिसक-सिसक कर
दम तोड़ती है।