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मेमनों की हत्या / निदा नवाज़

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(कश्मीर घाटी में मौजूद ह्ज़ारों बेनाम कब्रों को याद करते हुए)

आख़िर कहाँ गये वे लोग
वे भी तो राजदुलारे थे
अपने घरों के
आकाश तो नहीं खा गया उन्हें
धरती तो नहीं निगल गई उन्हें
उनमें से कुछ निकले थे
स्कूलों की ओर
अपनी नन्ही पीठ पर
उठाये किताबों का बोझ
और अपने नाज़ुक हाथों में
उठाये टिफिन
उनमें से कुछ निकले थे
अपने लहलहाते खेतों की ओर
उठाये अपने मज़बूत हाथों में
मिट्टी के हुक्के
और लोहे की द्रातियाँ
और कुछ निकले थे
कारख़ानों और दफ्तरों की ओर
अपनी आँखों में लिए
असंख्य स्वप्न
और मन में
ढेर सारा साहस
वे घरों से निकले तो थे
दिन के उजाले ने भी
उन्हें निकलते देखा था
मुस्कुराते हुए
सूर्य ने भी उन्हें देखा था
स्कूलों की ओर चलते हुए
खेतों की ओर जाते हुए
कारख़ानों और दफ़्तरों की ओर
निकलते हुए
पर वे फिर कभी भी
नहीं लोट आए अपने अपने घर
ना ही मिले फिर उनके पदचिन्ह
आकाश तो नहीं खा गया उन्हें
धरती तो नहीं निगल गई उन्हें
लेकिन...
रात्रि को सब कुछ मालूम है
गहरे अँधेरे को भी
सब कुछ मालूम है
कि उन का इस्तेमाल किया गया
फ़र्जी झड़पों में
सैनिक ड्रामाबाज़ियों में
और वे सदैव के लिए ढल गये
कुछ कायर फौजी अधिकारियों
के सीनों पर सजे
वीरता के पदकों में
वे सदैव के लिए सिमट गये
चंद फ़ौजी अधिकारियों की
सर्विस बुकों पर लिखी
झूठी शाबाशी की पंक्तियों में
यह सब सूर्य को नहीं मालूम
यह सब उजाले को भी नहीं मालूम
यह सब यदि मालूम है तो
रात्रि को है मालूम
गहरे अँधेरे को है मालूम
यह सब यदि मालूम है तो
यातना केन्द्रों की
दीवारों को है मालूम
हमारे लोकतंत्र की दहलीज़ पर बैठे
महाराजा को कुछ भी नहीं मालूम
हमारे महाराजा ने सूचियाँ देखीं
फ़र्जी झड़पों की आड़ में
बांटे गये पदकों
और तरक्कियों की
हमारे महाराजा ने
कभी भी नहीं देखीं
उन झड़पों में इस्तेमाल हुए
ह्ज़ारों निर्दोष लोगों की
सूचियाँ...
भेड़ियों की शाबाशी
हर एक ने देखी
किन्तु
मेमनों की हत्या
बस कुछ ही ने देखी है.