भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डर लगता है / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:45, 19 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रिय-विहीन, सुनसान, असुन्दर यह अपना ही घर लगता है
गली-मुहल्ले सूने-सूने औ’ वीरान शहर लगता है

रुन-झुन की धुन सुन न पा रहा
आँगन लगता रोया-रोया
दीवारें उदास लगती हैं
केलि-कक्ष भी खोया-खोया

नहीं सुहाता है जीवन की छवि-वीणा का डुंग-डुंग बजना
फूलों की पंखुरियों का स्वर पतझर की मर्मर लगता है

छाया-सी जो साथ लगी थी
नख-शिख प्रिय के प्रेम पगी थी
इतने बड़े विश्व में केवल
जो अपनी थी और सगी थी

उसके क्षणिक विरह ने पीड़ा को शाश्वत यौवन दे डाला
रवि-आतप की बात न पूछो, चन्द्र-प्रकाश प्रखर लगता है

सुख-दुख के हिचकोले खाते
बीती इतनी बड़ी उमरिया
तार-तार कर दी दुनिया ने
मेरे मन की लाल चुनरिया

अपनी ही साँसों की धुन सुन-सुन मैं चौंक-चौंक उठता हूँ
दुर्दिन में अपनी ही छाया से अपने को डर लगता है

-आकाशवाणी के पटना केंद्र से प्रसारित
2.8.1975