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पावस - 13 / प्रेमघन
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बक पाँति पताका उड़ै नभ सिन्धु में,
चाँप सुरेस धरे छवि छाजत।
जाचक चातक तोपत मोतिन
लौं झरि बुन्दन की बरसावत॥
देखिये तो घन प्रेम भरे,
प्रजा पुंज से मोर हैं सोर मचावत।
आज जहाज चढ़े महराज,
मनोज मनो घन पैं चढ़े आवत॥