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समाधि-लेख / श्रीकांत वर्मा

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हवा में झूल रही है एक डाल: कुछ चिड़ियाँ
कुछ और चिड़ियों से पूछती है हाल
एक स्त्री आईने के सामने
संवारती है बाल

कई साल हुए
मैंने लिखी थी कुछ कविताएँ
तृष्णाएँ
साल ख़त्म होने पर उठकर
अबाबीलों की तरह
टकराती, मंडराती
चिल्लाती हैं

स्त्रियाँ पता नहीं
जीवन में आती हैं
या जीवन से जाती हैं
आएँ या जाएँ
अब मुझमें अंधे की तरह
पैरों की आहट
सुनने का उत्साह नहीं

मैं जानता हूँ एक दिन यह
पाने की विकलता
और न पाने का दुःख
दोनों अर्थ हीन हो जाते हैं

नींद में बच्चे सुगबुगाते हैं
माएं जग जाती हैं
घर से निकली हुई स्त्रियाँ
द्वार पीटती हैं
और द्वार नहीं खुलने पर
चिल्लाती हैं

मुझे तिलमिलाती हैं
मेरी विफलताएँ
घर के दरवाज़े पर
'हमारी माग पूरी करो'

मैं उठता हूँ और उठकर
खिड़कियाँ, दरवाज़े
और कमीज के बटन
बंद कर लेता हूँ
और फुर्ति के साथ
एक कागज पर लिखता हूँ
"मैं अपनी विफलताओं का प्रणेता हूँ।"

युद्ध हो या न हो
एक दिन
चलते-चलते भी
मेरी धड़कन हो सकती है बंद,
मैं बिना
शहीद हुए भी मर सकता हूँ
यह मेरा सवाल नहीं है
बल्कि
उत्तर है
'मैं क्या कर सकता हूँ'

मुझसे नहीं होगा कि
दोपहर को बांग दूँ
या सारा समय प्रेम निवेदन करूँ
या फैशन परेड में
अचानक
धमाका बन फट पडूँ

जो मुझसे न हुआ
वो मेरा संसार नहीं
कोई लाचार नहीं
जो वह नहीं है
वह होने को