चौथॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो
चन्द्रवंश के मुकुटमनी हस्तिनापुरी के महाराज
भारत के गौरवमय विशाल माथा पर धरलॅ शीर्ष ताज
नवयुवक छवारिक सिंहॅ रं घूमै गंगा के तीरॅ पर
कहियो नै चललै जे अबतक गढ़लॅ प्राचीन लकीरॅ पर।
चर्चा छै राजा के विवेक के, शीलॅ के चतुराई के
वीरता-धर्म के दयालुता, जन-जन के बीच भलाई के।
चौड़ा छाती बाहू विशाल, आँखी में दर्प जुआनी के;
उपमा नै खोजेॅ सकॅ कहीं टस-टस गालॅ के पानी के।
पंछी जागै सॅ पैहन्हैं ही गंगा तीरॅ पर आबै छै,
नित्तम धारॅ पर लहरॅ पर भावॅ के फूल चढ़ाबै छै।
चेतना समुन्दर सें निकली बहलॅ अटूट क्रम जीवन के;
स्वादै मन के गहराई में धारा जड़-जड़ में चेतन के
उद्दाम कहीं ढरकाहू पर कल-कल गंगा रेतॅ रं,
छै धीर कहीं समतल पाबी साधक-ज्ञानी के चेतॅ रं
धारा ऐक्के-पर समय समयवश तेजी अलग बहावॅ के,
जाड़ा में कम, पर अधिक-अधिक गरमी में तेजी तावॅ के।
सारथी रंथ पर दूर खड़ा देखै निसोह राजा के मन,
डुबलॅ छै फूलॅ-पत्ता पर देखी-देखी ओसॅ के कण।
पीबी केॅ फूलॅ के सुगन्ध जे पल में कहीं बिलाबै छै;
राती के शीतल पलक चढ़ी फेरू फूलॅ पर आबै छै।
ई छनभंगुर क्रम जीवन के कोनी अनादि के सोरॅ सें,
शाश्वत रं बहलॅ आबै छै कालॅ के कोनी कोरॅ सें?
फूलॅ के शोभा सें सौंसे बनखण्ड सोहानॅ लागै छै;
लटसट सुगन्ध के बाँही में जीयै के कंछा जागै छै।
छै सार सृष्टि के सुन्दरता जें महामोद मन राखै छै,
ओकरे संभाखन में मनुष्य ने जिनगी के फल चाखै छै।
सुन्दरता दै छै रुप नया नित मोहक जरठ सनातन केॅ,
छै दिव्य किरण कोनों जें बदलै नित्तम बृद्ध पुरातन केॅ।
पलटी केॅ राजां देखै छै-मँजरैलॅ आमी छाया में,
खाढ़ी छै एक पड़ी सुन्दर अपरूप लोभानॅ माया में।
दपदप छै उजरॅ रूप, हवाँ झलमल अँचरा लहराबै छै,
हिमगिरि के कान्हा पर निर्मल झरना के शोभा पाबै छै।
छिटकै मोती के आव घनॅ ढलमल गालॅ के पानी में,
धुललॅ छै मधु-आसव-महिमा मानॅ जे मस्त जुआनी में।
मुस्कै छै अपने-आप सहज उमड़ै छै लहर उमंगॅ के,
गालॅ पर, समगति सें सँसरै छलनामय खुशी तरंगॅ के।
माला नीलम मरकत मूङा के सुन्दर कंठ लिपटलॅ छै,
दू सोमकलश छै नीचें में एकॅ सें दोंसरॅ सटल छै।
थोड़ॅ आरो नीचें बनलॅ छै खोंढ़ा तीन डडोरॅ के,
संकेत परम मोहक ढोंढ़ी र्से नीचें श्याम लकीरॅ के।
‘हबि पाबै लेॅ देवता विवश जे रं रिसि के आवाहन पर,
बेकल दौड़ छै साँप-हरिन जे रं बीणा-सम्मोहन पर।
छै मंत्रसिक्त जे रं खिंचलॅ आब जादू के डोरी सें,
कुछ वहेॅ कदर राजा ऐलै आतुर मलकल निभोरो सें।
”के तोहें रूपवती भुवन-मोहिनी
सुन्दरता के सार हे?
बाँटै छॅ मधुरस जीवॅ बसन्तॅ कॅ
मस्ती, जुआनी के प्यार हे?
कोनो मन्दाकिनी गोदी में खेली केॅ
पैने छॅ दग-दग रूप हे?
आँख सीपी, शितल मह-मह
चान कमल सरूप हे!
चमरी गौ सें केस सुन्दर
मिहीं बरौनी के रेख हे!
जेकरा देखी टहकी टीसै
काम-धनुहीं के तेख हे!
सोम-पल्लो पलक रचल
कान तायँ उतान हे!
फटिक मणि सन नाक! छुरिया
देव उपम उठान हे!
कुन्द कलि मन दाँत झलमल,
ठोर लाल प्रवाल हे!
ई हँसि अलौकिक देखि सुन्दरि
बिसरै ध्यान खियाल हे?
जाल फँसलॅ मीन-जेना,
जल बिना अति दीन हे!
रूप बिन्हलॅ शान्तनू के
प्राण तोरे अधीन हे!
”सुनॅ हे राजन्! कंछा सनातन
पुरुष नारि समान हे!
अदिति ऊषा उमा अरुन्धति
शचि ब्रह्माणि प्रमाण हे!
मतुर हमरॅ शत्तँ छै कुछ
जों हुअेॅ स्वीकार हे!
तेॅ पति वरै में तनिक हमरा
नै हिचक-इनकार हे!
”बोलॅ हे सुमुखी! तुरत बोलॅ
शत्तँ सब स्वीकार हे!
यै तीन लोकॅ में अलभ की
जे तोरा दरकार हे!”
”नै अलभ कुछ नृपति लेलो
नै अलभ शुचि प्यार हे!
पर एक हमरॅ टेक जानॅ
चिर स्वतंत्र विचार हे!
जे करौं से करौं, पकड़ेॅ
हाथ नै हमरॅ कभी!
‘के छेकी तों’-कोय नी पूछेॅ
काम पड़ने लाख भी!
ई वचन जों देॅ सकॅ तेॅ
नाथ कहिहौं आज ही!
बनि ब्याहता शुचि रंग-महलो
साथ चलिहौं आज ही!
जे घड़ी तक वचन रहतै
वै घड़ी तक प्रेयसी!”
‘एवमस्तु’-कही केॅ राजाँ
थामि लेलकै रूपसी!
छीन कटि पर हाथ, धड़कन
मय छुअन सें शिथिल तन;
जन्म-जन्मॅ के सिमटलै
एक पल में मोद मन।
प्रेम के अनुराग के दरिंया
भरी उमड़ी चलै,
जेना प्रकृति दिव के सनातन
मधुर मधु पीबी पलै।
राजमहल दिश लेॅ केॅ चललै
आदर सें रथ पर बैठाय;
मानॅ कल्पतरू टूसा में
पारिजात के फूल सजाय।
बड़ी जतन सें ऐलै नया बहुरिया हे बहिना
राऽज महल में।
नन्दन बन रं गम-गम गमकै
सगरो डगर डहरिया हे!
उतरी ऐलै अमरावती नगरिया हे बहिना!
राऽज महल में।
कोनॅ-कातर चौंक पुरैलै
झलमल छटा अटरिया हे!
चकमक चमकै डिड़ नै रहै नजरिया हे बहिना!
राऽज महल में?
चौंसठ अभरन अंग सजैलै
सुन्दर नया पटोरिया हे!
रति ने काटै दाँतें तरें अंगुरिया हे बहिना!
राऽज महल में!
बेला हुलसै, चूही हुलसै
हुललै हिना चमेलिया हे!
प्रेम-नगर सें ऐलै मधुर खबरिया हे बहिना!
राऽज महल में!
ढरकाबै छै अमरित कलशॅ गोरकी सखी इंजोरिया ने,
पलक चढ़ी केॅ करै मतालो हरकट सोख अन्हरिया ने,
मौसम के एक तरफा रौ में बहलै जिनगी बेपतवार,
मुग्ध कमलनी भ्रमर चौपलै मानॅ भूली जग संसार