भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मूर्धन्य हो तुम / अर्चना पंडा
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:07, 2 मार्च 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना पंडा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सत्यनिष्ठ हो धर्मनिष्ठ हो प्रिय अनन्य हो तुम
शब्द-अर्थ, कविता सब तुम ही मूर्धन्य हो तुम
तुम्हीं दीप हो, तुम्हीं धूप हो,
और तुम्हीं चंदन हो
तुम्हीं ज्ञान हो , तुम्हीं ध्यान हो
तुम्हीं भक्ति-वंदन हो
क्षण-क्षण पाऊँ तुम्हें स्वयं में, नहीं अन्य हो तुम
शब्द-अर्थ, कविता सब तुम ही मूर्धन्य हो तुम
सत्य-मार्ग पर चले निरन्तर
प्रीति, शक्ति बन जाये
और प्रीति की पराकाष्ठा ही
सदा भक्ति बन जाये
तुम जीवन का शंखनाद हो, पाञ्चजन्य हो तुम
शब्द-अर्थ, कविता सब तुम ही मूर्धन्य हो तुम
करूँ तुम्हारा "अर्चन" कैसे
बुद्धि-विवेक न शिक्षा
अब तो मेरे नैन, तुम्हारी
पल-पल करें प्रतीक्षा
मैं धरती तुम नभ हो सचमुच, धन्य-धन्य हो तुम
शब्द-अर्थ, कविता सब तुम ही मूर्धन्य हो तुम