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उलझ रहे दिनमान / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
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फँसी भंवर में जिंदगी, हुए ठहाके मौन
दरवाजों पर बेबशी, टांग रहा है कौन
इस मायावी जगत में, सीखा उसने ज्ञान
बिना किये लटका गया, कंधे पर अहसान
महानगर या गाँव हो, एक सरीखे लोग
परम्पराएँ भूल कर, भोग रहे है भोग
किस से अपना दुःख कहें, कलियाँ लहूलुहान
माली सोया बाग़ में, अपनी चादर तान
कपट भरें हैं आदमी, विष से भरी बयार
कितने मुश्किल हो गए, जीवन के दिन चार
खो बैठा है आदमी, रिश्तों की पहचान
जिस दिन से मँहगे हुए, गेंहूँ, मकई, धान
खुशियाँ मिली न हाट में, खाली मिली दुकान
हानि लाभ के जोड़ में उलझ रहे दिनमान