भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आखिर थके कबीर / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:54, 7 अप्रैल 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोक सिंह ठकुरेला |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
चौराहे पर आदमी, जाये वह किस ओर।
खडे हुए हैं हर तरफ, पथ में आदमखोर॥
जीवन केे इस गणित का, किसे सुनायें हाल।
कहीं स्वर्ण के ढे़र हैं, कहीं न मिलती दाल॥
सीख सुहानी आज तक, उन्हें न आयी रास।
तार तार होता रहा, बया तुम्हारा वास॥
घर रखवाली के लिए, जिसे रखा था पाल।
वही चल रहा आज कल, टेढ़ी मेढ़ी चाल॥
द्वारे द्वारे घूमकर, आखिर थके कबीर।
किसको समझायें यहॉं, मरा ऑंख का नीर॥
शेर सो रहे मांद में, बुझे हुए अंगार।
इस सुसुप्त माहौल में, कुछ तू ही कर यार॥