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कुछ नहीं आज करता द्रवित / शिव ओम अम्बर

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कुछ नहीं आज करता द्रवित,
हम बने हैं ग़ज़ल से गणित।

दृष्टि में हों शिखर शैल के,
शब्द के पाँव हैं शृंखलित।

है रुदन भी प्रतीक्षानिरत,
हर हँसी कर रही है ध्वनित।

भाल पे होंठ किसने रखे,
ताप होने लगे हैं शमित।

तेज़ गति में बहुत है मगर,
है हमारी सदी दिग्भ्रमित।

दर्प विध्वस्त जिस पल हुआ,
प्रार्थना हो उठी पल्लवित।