भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वहीं रावणोॅ केॅ संहारौ भी पारेॅ / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:40, 6 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=रेत र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
वहीं रावणोॅ केॅ संहारौ भी पारेॅ
अहिल्या केॅ जौनें कि तारौ भी पारेॅ
बसैलेॅ होलोॅ छै जे हिरदय में चंदन
वहीं साँप देहोॅ पेॅ धारौ भी पारेॅ
ई कलजुग छेकै आचरज कुछ नै करियोॅ
पुजारी सुरोॅ केॅ मुचारौ भी पारेॅ
जे इक इक घड़ी में उठै लेॅ छै व्याकुल
ई सोचलौ केना दिन गुजारौ भी पारेॅ
जे चंदन, सुगंधि-शीतलता केॅ दै छै
रगड़ला पर जंगल केॅ जारौ भी पारेॅ
मलकोॅ चलोॅ नै रूठी केॅ अमरेन्दर
घुमी केॅ रुठबैय्या पुकारौ भी पारेॅ
-20.6.61