भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सातमॅ सर्ग: मंथरा / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:07, 10 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र 'परिमल' |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीच नीच छै, ऊपर होबॅ ओकरँ बस के बात कहाँ?
जे दासी छै, हौ दासी छै, ऊ ऊपर चढ़ेॅ, बिसात कहाँ?
ई अटल नियम छै दुनियाँ के, कोय कत्तो करॅ, बेकार छेकै,
नाली के कीड़ा नाली में ही शोभा पाबै, सार छेकै।

रानी लेली की नै करलाँ, लेकिन पैलाँ की जश कोनों?
उल्टे जे फॅल सामने छेॅ, बिगड़ी गेलॅ छेॅ कुल दोनों,
लोको-परलोक दुओ मिटलॅ, दुनियाँ में मान हँसैने छी।
चिंता के नागिन सें छन-छन प्राणॅ केॅ खूब डँसैने छी।

रानी असराँ पललाँ सब दिन, रानी के शुभ करना चाहियॅ,
ई जानी जे कुछ करने छी, सब अपजस के मोटरी कहियॅ,
सबने थूकै छै हमरा पर, सब-टा मनसूबा चूर भेलॅ,
है इतिहासॅ के पन्ना गढ़लाँ, लेकिन कारॅ, दूर भेलॅ।

उल्टी केॅ पासा हमरे पर पड़लॅ, जीवन नैया डगमग,
पैहने छेलाँ अच्छा, चुनरी झलकै छेलॅ उजरॅ दगदग,
जों भरतें मानी लेतियै, तेॅ दोनों के गोटी लाल छेलै,
दासी के, रानी के जिनगी, बस एक्के साथ निहाल छेलै।

लेकिन, सब सपना तोड़ी केॅ माटी में आय मिलाय देलक,
अमृत के खोजॅ में छेलाँ, वें मोहरॅ आय पिलाय देलक,
दुनियाँ छै दोषॅ सें भरलॅ, जों ओकरॅ हुवेॅ उघारॅ नै,
वै सुख दै छै यै दुनियाँ में, केकरॅ छै थोथनॅ कारॅ नै?

लेकिन, जे दिन ऊ उघरै छै, वें पीड़ा दै छै असम्भार,
जिनगी के सँचलॅ लूटै छै, सब मान, प्रतिष्ठा, दया, प्यार,
हमरॅ गति होलॅ छेॅ बहिने, दुर्दिन माथा पर दौड़े छै,
अपना-अपनी बेलॅ केॅ सबने हमरे माथाँ फोड़ै छै।

नाली के खद-खद पिल्लू रं असहाय बनी केॅ जीयै छी,
अपमानॅ के प्याला हरदम मुस्की-मुस्की केॅ पीयै छी,
जे रानी के प्यारॅ छेलाँ ओकरॅ नजरीं मे गिरलॅ छीं,
है कैन्हॅ करनी करलाँ जे कोय घाटॅ के नै रहलॅ छीं?

की-की जीवन-अरमान छेलॅ, की बुद्धि विद्या, ज्ञान छेलॅ,
है बहलाँ कैन्हॅ भावॅ में जिनगी के सब टा मान गेलॅ,
लछुमन के रूप भयंकर ऊ देखी थर-थर काँपी उठलाँ,
भरतॅ के घिरना देखी केॅ मन के मारी-चाँपी उठलाँ।

थू-थू केॅ सबने थूकै छेॅ, छी-छी बोली दुतकारै छै,
लागै छेॅ छन-छन मरी-मरी जीयै छी जमें पुकारै छै,
ऐहनॅ जिनगी सें नै जिनगी अच्छा छेॅ, प्रभु! उबारी लेॅ,
कीनों सुकर्म जों करने छीं, तेॅ यै दुखिया केॅ तारी लेॅ,

हमरॅ नै कोनों स्वार्थ्ज्ञ छेलै, हतभागी के परमार्थ छेलै,
अविवेकी प्रेमॅ के माया यै रूपॅ में चरितार्थ भेलै,
जे कुछ सिखलैलियै रानी केॅ, हमरा छॅ-पाँच कहाँ छेलै
भरत कॅे राजतिलक दै में तनियों-टा आँच कहाँ छेलै।

एक्के-टा भेलै भूल राम-
के बन के बात उचारी केॅ,
छाती में साङ भिसलियै
आपन्हैं आपनॅ जीवन मारी केॅ।