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दोहा गीत - २ / धनन्जय मिश्र
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कब तक रहतै रात ई, आनै छै ऊ भोर,
इखनी आँखी सें भले झपलोॅ रहौ इंजोर।
दुख कत्तो भारी रहौ, रहतै हल्के-क्षीण
आँखी-ठोरोॅ बीच में झलकै सुख के कोर।
सुख कभियो नै सुख लगै, जों दुख नै छै साथ
ज्यों ठोरोॅ पर सुख सजेॅ, तेॅ आँखी में लोर!
सुख पावी की हुलसवोॅ, देखलेॅ छै के काल
सुख केॅ चाँपी केॅ रखै, विपद बड़ा घनघोर!
लोग कहै जंग छै दुखी, दुख के लेलेॅ भार
हम्मे जग केॅ देखलौं सुख में पोरमपोर।