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गाँव / अनिल शंकर झा

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केना ने कहियै शोषित गाँव?
दुष्ट सभा मे रोपित पाँव?
पुरबा-पछिया-हवा-बयारोॅ
में स्थिर हिमगिरि रं गाँव।

दू टा पक्का, बाकी कच्चा,
कुंचा-खोडी खेलै बच्चा।
पीपल-बरगद आमी तर मे,
भय्यां लौटी, बाढ़ै बच्चा।
सांझ सकारे, लूह-बतासें,
सबके लेली सच्चा ठाँव।

नगरी के माया से दूर,
दाहा-मारा से छै चूर।
गैय्या-बरदा, भैंसा-काडा,
बस दौलत येही भरपूर।
नै त ठाँव नहीं कुठांव,
युगोॅ-युगोॅ सें शोषित गाँव।

रेशम-देह आ कच्चा सूत,
छाती सें लगलोॅ छै पूत।
पयस्विनी के अमृत-धारा,
सिंचित मानव लता सरूप।
बूढा-बूढी, शीतल छाँव,
परंपरा से पोषित गाँव।

अल्हा-उदल दैव-मनौन,
केकरो बीहा, केकरो गौन।
ढोल-झाल आ नपका पाहुन,
धिरकौ, गाभौ, होली छौन।
मस्ती से बौरैलोॅ गाँव,
बिन पीने बहकै छै पाँव।

उमड़ै सावन-भादोॅ धार,
दुखिया पर दैबोॅ के मार।
तितलोॅ साडी, जोॅर-जलावन,
भुज्जा दर्रा छै आहार।
की पीन्हौ आरो की खाँव?
चिन्ता से मरूवैलोॅ गाँव।

गोबर-माटी छिटमा-छीट,
रोपा करबै, बीया छीट।
आरी पर मुसकै छै मालिक,
खेतोॅ मे रोपनी के दीठ।
कोय नै जीतै-हारै दाँव,
नेह-मेह से सींचलोॅ गाँव।

निदैलोॅ बुतरू रं आन,
भीतर में जमलोॅ तुफान।
चोर-महाजन, जाति-नेता,
चुगला सैं खंडित सम्मान।
लोर्हा रं बिखारैलोॅ गाँव,
वोटोॅ में ओझरैलोॅ गाँव।

यौवन में शहरोॅ के आस,
बच्चा बुतरू दैबोॅ पास।
अपना डीहोॅ पर लेना छै,
यै जीवन के अन्तिम साँस।
जाय समेटी क सब माया,
कंधा लेली लौटै गाँव।