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अचरज / अनिल शंकर झा
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रोज पगलिया गाछी तर में,
आपनोॅ महल बनाबै।
कागज पत्ता चुनी-चुनी केॅ
सुन्दर सेज सजाबै।
रोज हवा के झोंका आबै,
सब सपना बिखराबै।
पगली दाढ़ मारी केॅ कानै,
देखबैया मुसकाबै।
रोज विधि के न्याय क्रिया पर,
एक टा प्रश्न लगाबै।
फनू पगलियाँ रोज बिहानें,
कागज-फूल उठाबै।