भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तों आबोॅ / अनिल शंकर झा
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:59, 11 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल शंकर झा |अनुवादक= |संग्रह=लचक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
गुमसुम अकेला में,
पिघली केॅ टपकै छै चाँद,
ऐंगना दुआरी में,
तों आवोॅ।
कटलोॅ पतंगोॅ रं,
ओझराबै छै चाँद,
मंजरैलोॅ गाछी में,
तों आवोॅ।
चुप्पेचाप, कानोॅ में,
की नै जानों बोलै छै,
बरसेॅ के रोगी रं
पथरैलोॅ आँखी सें,
करूणा रं घोलै छै
तों आवोॅ।
बिरही छै,
बाटोॅ में अटकै छै,
कथी ले भटकै छै?
चुप छै-
पर चुप्पी ही बोलै छै-
की-की वें सहै छै,
करूणा के अनगिनत अदृश्य धारा,
दूधोॅ रं बहै छै,
तों आबोॅ।