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छठा सर्ग: उर्मिला / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'

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जे अनहोनी घटलॅ छै घर में, जग में की फेरू घटतॅ?
है बंशॅ के इतिहास नया की दुनियाँ ने फेरू लिखतॅ?
स्वार्थी जन कैन्हॅ अन्धा छै, बहरा छै, केवल बहरा छै,
देखै छै नजरी सें सब कुछ, लेकिन नै जानै-बूझै छै।

स्वार्थी के गति छै कामी रं, दोनों के गति बिलकुल समान,
फल-कुफल कहाँ नजरीं सूझै, मतलब पर आँख गड़ैने छै,
लेकिन, दुनियाँ भी अलबेला, जत्तेॅ माथॅ तत्ते बिचार,
कोय काँटॅ कूसें दौड़ै छै कोय रस्ता सें नै डिगलॅ छै।

कोय है जीवन केॅ बुझने छै, कोय ओकरा में छै भरमैलॅ,
कोय जियै लेॅ मरलॅ सबदिन, कोय मरलॅ छै जीबी-जीबी,
की अच्छा या अदलाहा छै ज्ञानी ने सोच-विचार करै,
जे अज्ञानी छै ओकरा की? वें तेॅ धरती पर भार धरै।

छै कोन जिन्दगी सबसें अच्छा, कीन जिन्दगी सार्थक छै?
‘कोनी जीवन लेॅ जीना छै? है प्रश्न जटिल छै जीवन के,
लेकिन, एकरा में की अड़चन, कैन्हॅ भ्रम छै, या दुर्विचार,
दुनियाँ सब कुछ जानी बूझी, भूलै छै कुछ-कुछ बार-बार।

जे जीवन पर-हित लागलॅ छै त्यागॅ पर सबदिन टिकलॅ छै
क्षमा, दया, गुण, शील तपस्या केॅ सबदिन अपनैने छै,
यश ओकरे ही जीवन छेकै जेकरा पर प्राण निछाबर छै,
जेकरॅ खातिर ओकरॅ जीवन सबदिन जीलॅ छै मरलॅ छै।

ओकरॅ तन-मन-धन अर्पित छै, बस लोक-लाज केॅ राखै लेॅ,
ओकरॅ जीवन के मान प्रतिष्ठा, सुख-दुख के रस चाखै लेॅ,
वें दुक्खॅ में सुख मानै छै, ओकरॅ त्यागें दुनियाँ बसलॅ,
ओकरे इंजोर सें अन्धकार टिम-टिम सजलॅ जग-मग हँसलॅ।

सुख-दुख के चिता धधकलॅ छै, जेकरॅ अरमान बिखरलॅ छै,
ओकरे कल्पना जियै लेली दुनियाँ के सपना बनलॅ छै,
जीवन धारा में बहलॅ छै सुख-स्वार्थॅ पर बिलकुल टिकलॅ,
नश्वर जीवन साधन छेकै, जीवन के रूप निराला छै।

काम, क्रोध, मद, लोभॅ सें जे देह लबालब भरलॅ छै,
उपरॅ सें चिकनॅ बिष-घैलॅ, भितरॅ सें मीर्तु सजैलॅ छै,
काजर के धब्बा केॅ डर की? मुर्ख केॅ की परिभाषा सें,
धब्बा के डर जे उजरॅ छै, जीयै के जश के आशा सें।

जे चोटी पर चढ़बैया छै, गिरला के ओकर है लाज होतै,
जे गिलॅ छै, ओकरा गिरला सें बोलॅ कीन अकाज होतै?“
जीवन छै बिलकुल साफ यहाँ, लीखॅ के, आ’ कू-लीखॅ के,
लेकिन कोय फूलॅ सें भरलॅ, कोय काँटा सें ही भरलॅ छै।

चलने बाला केॅ बोध यहाँ सब दिन सें होलॅ ऐलॅ छै,
जें ओकरा अच्छा समझै छै, ओकरा अपनैने ऐलॅ छै,
बस, आय परीक्षा छै हमरॅ, बिधि के विधान अजगुत कहियॅ
की चाहै छत प्राणेश करै लेॅ हमरा की करना-चाहियॅ?

बन जाना छै भैंसुरजी केॅ दीदी केॅ धर्मॅ पर चलना,
दीनों के सेवा खातिर भरसक, हुनियों बनतात् बन-गमना,
तीनों के सहज संचरण में झलकै जीवन के पूर्ण रूप
जे हमरॅ गेला सें बाधित होतै कर्म में ढील-चूक।

हमरा पर ध्यान बँटी जैतै, सेवा के मान घटी जैतै,
तप-त्यागॅ सें भरलॅ अंतर मोहॅ सें सहज पटी जैतै,
केकरॅ निमित्त बनबॅ अच्छा, अपजस सें की सनबॅ अच्छा?
सेवा लेॅ अर्पित भावॅ पर स्वार्थी रं की तनबॅ अक्छा?

लेकिन दू-चार बरस के नै, चौदॅ बरस के बात छेकै,
जीवन के मधुमय ठोरॅ पर यौवन के कटु संघात छेकै,
यै सें दुविधा में प्राण विकल, कोनी रस्ता केॅ अपनाबों?
जीवन-साथी के साथ चलौं, या हुनका तेजी यश पाबों?

आबी केॅ फूल अड़कलॅ छै चोखॅ काँटा के बीचॅ में,
मछली तड़पै छै देखी केॅ, पानी के हाय! नगीचॅ में,
मानुष जीवन छै बड़ा कठिन, कंठॅ में प्यास सुखाबै छै,
अगला जीवन के खातिर कत्तेॅ जीवन अर्ध चढ़ाबै छै।

कामॅ के मोहॅ के छायाँ सब जीबॅ केॅ भरमावै छै,
छन के सुख पर वें जनम-जनम के सपना केॅ बिसराबै छै,
लेकिन मनुष्य के निश्चय ने सब भूख-प्यास केॅ जीतै छै,
लहरैलॅ नदी समुन्दर में भी प्राण नै ओकरॅ तीतै छै।

काँटा पर दौड़ै छै हॅसलॅ, ऊ मानॅ बिना थकानॅ के,
जानॅ पर खेलै छै हरदम ऊ रक्षा में अभिमानॅ के,
ओकर्हौ पर नारी जीवन के शीलता लता रं बढ़लॅ छै,
दुख के अंधड़ में, पानी में, ऊ अकाशॅ पर चढ़लॅ छै।

त्यागॅ के, सेवा के, आगूँ सब सुख छै छुच्छॅ, सारहीन,
छनभंगुर जीवन के उपरें धरलॅ छै जीवन अंतहीन,
स्वामी जैतै सेवा लेॅ, सब कमजोर भाव केॅ तेजी केॅ,
बस हमरो हुवेॅ करेजॅ कट्ठर, हुनका जंगल भेजी केॅ।

डिकरेॅ लागतै जखनी मैया के नरम करेजॅ गैया रं,
तखनी भरबै मुस्कान तुरत, सुनापन दूर भगैया रं,
जी-जानॅ सें खुशियाली केॅ बस नेम-धरम सें आनी केॅ,
बिरहा के आगिन रोज समर्पित करबै सेवा-पानी केॅ।