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नौमॅ सर्ग: कौशल्या / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'

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”जे कुछ भेलै सब पैहने सें निश्चित छेलै“
कौशल्या मातां सोचै छै एकाकी में-
”लेकिन तय्यो लखतें-लखतें उजड़ी गेलै,
कत्तेॅ नी सुन्दर दृश्य नगर के झाँकी सें।

डुबलॅ छै सौंसे राज भवन कटु चिंता में,
गिरलॅ छै बज्जड़ घर-घर के खुशियाली पर
कत्तेॅ नाजुक बान्हन सुख-दुख के बीचॅ में,
बन्हलॅ छै, टूटै लहरॅ के झटकारी पर।

लोगें नै जानै छै अगला छन में ओकरॅ,
मंसूबा छितरी जैतै चकनाचूर बनी,
असहाय बनी दोसरे पल ऊ डोल लागतै,
दम-खम ओकरॅ पिघली जैतै मजबूर बनी।

आशा के चहट अजूबा जिनगी में बुनलॅ
जें हिरदै में सुख के झरना सँहराबै छै,
भूली केॅ पिछला चोट नियति के मारॅ के
मन के ऐना में नया बाग लहराबै छै।

झूलै छै तबतक झूला पर वै बगिया में,
जबतक झटका ने तोड़ै नै छै डोरी केॅ,
होनी लेॅ केॅ बिकराल रूप नै आबै छै,
नै चेत कराबै छै ओकरा झकझोरी केॅ।

ओला गिरलै जन-जन के आस-हुलासॅ पर,
रानी के आस-हुलास जबेॅ घहराय गेलै,
लेकिन झटका भरतें ने देखकै हानी केॅ,
सब मंसूबा धरले-धरले छितराय गेलै।

एक्कें जेकरा मानै छै अच्छा दोसरें ने,
ओकर्है अदलाहा बोली केॅ दुत्कारै छै,
सुख-दुख सें ऊपर कुछ बिचार छै दुनियाँ में,
जेकरॅ महिमा भरसक कोय्नै इनकारै छै।

हौ सब बिचार छै बसलॅ ओकरे माथा में,
अपना सें बाहर निकली केॅ जें सोचै छै,
तेजी केॅ सबटा लोभ त्याग के महिमा केॅ;
भुखलॅ बाघॅ रं हाथें-मुहें दबोचै छै।

रामॅ के त्याग अजूबा छै, ओकरे धीरज
पर टिकलॅ सौंसे आय धरित्री लागै छै,
ओकरॅ करनी के फूल सुगंधित तीन-भुवन
ओकरॅ यश पर अभिमान मनॅ में जागै छै।

हमरॅ कोखी में जनम भलें वें लेने छेॅ,
जिनगी के ओकरॅ राह गढ़लकै कैकेयी,
एखनी की? ऊ तेॅ बच्चे सें बनबासी छेॅ,
विधना के लिखलॅ भाग पढ़लकै कैकेयी।

चौदॅ बरसॅ लेॅ हमरा बुक बान्हेॅ पड़तै,
कट्ठर धीरज सें छातीं पत्थल राखी केॅ,
माया-ममता-मातृत्व सम्हारै लेॅ पड़तै
करुणा के सोत सुखाबेॅ पड़तै आँखी केॅ।

रामॅ के माय कहाबै लेॅ सबकुछ करबै,
जेना करने ऐलॅ छै माता धरती ने,
लोगें ने चीरै छै, फाड़ै छै, कोड़ै छै,
बदला में सुख-सपना लहराबै परती में।

भंगुर जिनगी में सतकर्मॅ के लेखा ही,
संची राखै छै दुनियाँ जुग अजबारी केॅ,
खॅखरी-बोतरॅ तेजी केॅ जेना सूपें ने
सरिहन-सरिहन-टा राखै खूब सम्हारी केॅ।“

आँखी मं ऐलॅ लोर सुखैलै आँखी में
कौशल्या उठलै भरलॅ चित्त सम्हारी केॅ,
रस्सें-रस्सें अपना भवनॅ सें निकली केॅ,
जाय केॅ खाड़ी भेलै छोटकी के द्वारी पेॅ।

दौड़ी पड़लै कैकेयी दीदी केॅ देखी
गोड़ॅ पर गिरलै सुध-बुध सभे बिसारी केॅ,
बान्हल्कै तुरत उठाय करुण केॅ करुणा सें,
छाती में कौशल्या ने बाँह पसारी केॅ।

हिचकी में डुबलै सराबोर सोंसे धरती,
आकाश समूचा तिरलै प्रेम-तरंगॅ में,
धुललै कलंक, तय्यो नै धुरलै सहज हास,
जीवनमय लक-दक अवधपुरी के रंगॅ में।