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पाँचर्म सर्ग: लछुमन / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'

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अन्तर्मंन जरलॅ लछुमन के गोस्सा सें ठोर फड़कलॅ छै,
दुनियाँ के माया-मोहॅ सें घिरना के भाव उमड़लॅ छै
छिः, रिस्ता एक दिखावा छै, करनी में कुछ बोली में कुछ,
मतलब साधै लेॅ सब कुछ छै, चोली में कुछ दामन में कुछ

लागै छलै जे माय समुन्दर प्रेमॅ के, पुचकारॅ के,
माया के ममता के मुर्ती साक्षात कहानी प्यारॅ के,
मधु रं मिट्ठॅ बोली छेलै, लेकिन हिरदै के हड़िया में,
है मौहरॅ भरलॅ आबै छै, के जानेॅ बोलॅ कहिया सें।

ठिक्के बोलै छै मौगी के मन के सब बात अजूबा छै,
बिष केॅ संचय छै नागिन रं, कोषल राखै मनसूबा छै,
दुक्खॅ के जॅड़ छेकै मौगी, घर के अशान्ति, बिड़गोडॅ़ के,
सुख-सपना के आगिन छेकै, कारण जीवन के मोड़ॅ के।

यै चालॅ पर ही परशुराम केॅ ‘परशु’ सम्हारै लेॅ पड़लै,
आदेश पिता के पाबी केॅ माय्हौ केॅ मारै लेॅ पड़लै,
भैयाँ मिङहारने छेलै की कोनॅ सपना वै माता के?
जे सत्यानासी चाल चललकै, लेलकै रूप विमाता के?

नाता माता सें बेसी की दुनियाँ में आरो छै कोनों?
स्वार्थ के आगूँ सब झुट्ठा, सब कुछ, हीरा-मोती सोनॅ।
आदमी सें बेसी मोल राज-पाटॅ के, मान दिखाबा के,
हूवेॅ लागेॅ जे दुनियाँ में, मर्यादा सें पहराबा के।

वै दुनियाँ केॅ तेॅ फेंकी देॅ साक्षात समुन्दर के गोदी,
नै रहेॅ बाँस, नै बजेॅ बाँसुरी अनकीर्तॅ रं सुर शोधी,
स्वार्थी ओढ़ै छै खाल शीतला के सबके देखलाबै लेॅ,
भीतर वें हिंसक दाँत पिजाबै छै मनचाहा पाबै लेॅ।

है भरतॅ के सुन्दर काया बिष-घट रं कैन्हॅ भरलॅ छै,
उपरॅ सें सीलॅ-मुनलॅ छै, भितरॅ-भितरॅ सें सड़लॅ छै,
उच्चॅ बंशॅ में बानॅ ई कुल के कलंक रं लागै छै,
नागॅ केॅ दूध पिलाबॅ, लेकिन ठोकर खैथैं जागै छै।

यें करुआ नागें खानदान केॅ बिक्खॅ सें बोरी देलकै,
पटकलकै ऐन्हॅ फन, अमृत भरलॅ हड़िया फोड़ी देलकै,
यें आग लगैलकॅ वंशॅ में, ये दाग लगैलकॅ बंशॅ में,
एकरे संकेतॅ पर निश्चित है ज्वालामुखी भड़कलॅ छै।

गूरॅ छेकॅ ई, मूँ रानी माता केॅ यहीं बनैने छै,
यै सुसुरमुहाँ मामा घर सें कैन्हं नीती अपनैने छै,
सब लोक-लाज केॅ पाबी केॅ, कुल के मर्यादा भूली केॅ,
है गुड़ के गाछ केतारी ने सौंसे घर केॅ कलपैने छै।

बचनॅ के धनीं पिता कलपै, कलपी उठलै दोनों मैया,
की बिततै सीता साध्वी पर, होतै असमंजस में भैया,
कल छेकै राजतिलक जिनकॅ सौंसे दुनियाँ ने जानै छै,
जिनकॅ गुन-शीलॅ के महिमा एक सूरहैं प्रजाँ बखानै छै।

हुनका पर उल्कापात मेलै, ई कम मर्म के बात भेलै?
कैहने नी धरती फाटै छै, का ओकरहौ सन्नीपात भेलै?
हुनकॅ जों आज्ञा हुअेॅ तं धरती साँसे आय उखाड़ी केॅ,
खोजी-खोजी दुष्कर्म जरैयै ओकरॅ बीह फाड़ी केॅ

मेंटी दीयै संताप सृष्टि के सब दिन लेॅ यै धरती सें,
फेरू नै कहियो जन्म लियेॅ रघु-कुल में ई रं गलती सें,
जल-जल छै गोस्सा सें लछुमन, आँखी में खून उतरलॅ छै,
फड़कै छै फड़-फड़ भुजा, चेहरा सौंसे तामस भरलॅ छै।

लागै छै आयकेॅ दम लेतै यें सौंसे सृष्टि सँहारी केॅ,
या, कम-सें-कम धरती पर के अनकीर्तॅ बाला मारी केॅ,
”कुबड़ी! देबौ तोरा सबसें पहिने चीरी केॅ सूखै लं,
नौड़ी होय्केॅ तोहें ऐली छें रघुबंशी पर थूकै लेॅ?“

तमकलै सुमित्रा-नन्दन, उमकै, उमतैलॅ गज-राज जेना,
मुस्कै छै आगूँ राम, बुझी केॅ मन के सब-टा भाव जेना,
”भैया आज्ञा देॅ, आय निखत्तर करबै लिप्सा बाला केॅ,
रघुबंशी के अपमानॅ केॅ, कुल पर के धब्बा काला केॅ,

हमरॅ रहतें ई अनहोनी है बंशॅ में नै संभव छै,
केकरॅ मजाल छै मुँह खोलॅे कोय खाड़ॅ रहेॅ असंभव छै।“
”लिप्सा बाला ही कर्म कि तोरॅ दुनियाँ बालाँ नै कहथौं?
गोस्सा तेॅ ओकरे रूप छेकै, एखनी उल्टे गंगा बहथौं।

कुल के सब मान लुटी जैतै, जों धनुष उठेॅ सिंहासन लेॅ,
छै वचन पिताजी के जबतक, छै जगह इन्द्र के आसन लेॅ।“
मैया के प्रेम अजूबा छै त्यागॅ के राह देखेॅने छै
समझॅ में जेकरा ऐलॅ छै ऊ मन्हैं-मन्हैं मुस्कैने छै।

गोस्सा सें अबतक लाल छेलै, ऊ लाजॅ सें ललियाय गेलै,
निर्दोष माय के बारे में है सोचलियै? पछताय गेलै,
अनबुझ छै त्यागॅ के महिमा, गोस्सा छै मूल बिकारॅ के,
जें निर्दोष केॅ दोषै छै, उपहास करै छै प्यारॅ के।

भैया के रूप निरखला सें ही आय परंपत बचलॅ छै,
भैया के चरणॅ में सबकुछ अर्पित छै, हुनियें जँचलॅ छै।