भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जहाँ चट्टानें भाषा जानती हैं / सविता सिंह

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:22, 23 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सविता सिंह |संग्रह=नींद थी और रात थी / सविता सिंह }} मैं उ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं उन सुरम्य घाटियों से गुजर रही हूँ
जहाँ चट्टानें भाषा जानती हैं
ठंड महसूस करती हैं
सिरहन में इनके भी काँपते हैं हौंठ

हरी काली कहीं
कहीं बदरंग भूरी
रंगों के प्रति सजग फिर भी
जिस्म की ठोस इच्छाओं से बिंधी
प्रकृति की हर आवाज को सुनती हैं ये चट्टानें
एक एक शब्द बचाती हैं अपने भीतर
सारे आत्मीय स्पर्श
लौटाने के लिए हमें

मैं उन सुरम्य घाटियों से गुजर रहीं हूँ
एक झरना जहाँ बह रहा है
एक लाल चिड़िया जहाँ मेरा इंतजार कर रही है