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चौथोॅ सर्ग / अतिरथी / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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‘दान कर्म तेॅ अंग देस रोॅ
माँटी के कण-कण में गड़लोॅ
जे माटी में रजत-स्वर्ण सब
धूले-मांटी रं छै पड़लोॅ।’

सूर्य, स्वर्ण के कुंभ, झलकलै
भोरकोॅ लाली बिछलोॅ-बिछलोॅ
अभियो ओस दिखाबै छेलै
दुबड़ी सबटा सिंचलोॅ-सिंचलोॅ।

कर्ण अभी तांय आसन पर ही
आँख मुनी केॅ बैठलोॅ होलोॅ
ध्यान सूर्य पर ही टंगलोॅ छै
कुश-अक्षत चन्दन में धोलोॅ।

कि चिड़ियाँ सब चिकरी उठलै
नै जानौं कौनी ठो भय सें
भरी गेलै कर्णोॅ के मन ठो
अनचिन्हार सौ-सौ संशय सें

रातको बात सुधि में ऐलै
लगलै पिता बगल में ठाड़ोॅ
बोलै-”बेटा आवी गेलौं
सब्भे टा भ्रम-संशय फाड़ोॅ।’

‘वचन निभाबै के फेरा में
पूत, गँमैयोॅ नै प्राणोॅ केॅ
छीनै लेॅ ऐलोॅ छै छलिया
धरती के सूरज-चानोॅ केॅ।’

‘एकरोॅ जैतैं रात उतरतौं
महाप्रलय के अंधियारा रं
जेकरा में तोरोॅ जीवन ई
छितरैतौं टुटलोॅ तारा रं।’

अन्तिम फूल चढ़ाय केॅ कणेॅ
भगवानोॅ केॅ नमन करलकै
सम्मुख इक याचक केॅ देखी
चेहरा पर मुस्कान उभरलै

बोलेॅ लागलै कर्ण, ‘विप्रवर,
अनचोके आबै के कारण?
कैन्हें चिन्ता के बोझोॅ केॅ
चेहरा पर करलेॅ छौ धारण?’

‘की कोनो दैहिक बाधा छै
या कोनो दैविक छौं बाधा
या भौतिक तेॅ जल्दी बोलोॅ
कोन विपत्ति हौ नर-मादा?

सुनथैं बोली उठलै याचक
‘याचक छी, माँगै लेॅ ऐलियौं
तोरोॅ अपयश भारी होतौं
जों खाली हाथे ही गेलियौं।’

‘तोरोॅ दान कथा दुनियैं नै
स्वर्गलोक भी जानैं, मानैं
तोरोॅ रं नै दानी पाबै
कत्तोॅ मिली केॅ सब्भैं ध्यानै।’

‘अंग देस तेॅ दान-पुण्य के
धरती परकोॅ स्वर्गे छेकै
कोय्यो देव कैन्हें नी होवेॅ
हेकरे दिश बस टुकटुक ताकै।’

‘वही देश के तोहें दानी
जहाँ मथैलै सागर तक भी
अमृत के जे देश मनोहर
धन्य-धन्य तोरा जे पाबी।’

‘अंग देस पर बहुत-बहुत छै
दानी आरो सतकर्मी भी
लेकिन तारोॅ हेनोॅ के छै
महाप्रतापी संग धर्मी भी।’

‘दान-धर्म केॅ पुण्य कर्म रं
तोहें जीवन में अपनैलौ
जीते जी ई यश के पैतै
जे जीते जी तोहें पैलौ।’

‘हम्में याचक छी की मांगौं
देन्हैं छौं तेॅ दै दा हमरा
कवच आरो कुण्डल ई दोनों
धन्य-धन्य लै होवोॅ एकरा।’

कवच आर कुण्डल सुनथैं ही
कर्ण हठाते चौंकी उठलै
होनै केॅ भौवैलै क्षण भर
नींद जेना आधे में टुटलै।

‘हाय पिता के वचन केना ऊ
भूली गेलै ठीक समय पर
हमरा जे पावी अचेत रं
उतरी ऐलै भाग्य अनयपर

‘हाय पिता के पूजा पर ही
कोय याचक माँगेॅ; नै बोलौं
कोय तरह सें ई नै होतै
कवच काटी केॅ बेशक खोलौं।’

‘दान कर्म तेॅ अंग देस रोॅ
माँटी के कण-कण मंे गड़लोॅ
जे माटी में रजत-स्वर्ण सब
धूले-मांटी रं छै पड़लोॅ।’

के पूछै छै स्वर्ण कवच केॅ
कुण्डल की सिंहासन तक केॅ
अंग देस के लोगें देखै
कंकड़ रं सुर-आसन तक केॅ।’

लेकिन हमरोॅ कवच आ कुण्डल
खाली कंचन भर नै छेकै
ई हमरोॅ संकल्प-पुण्यफल
कोय एकरा केना केॅ फेकै।’

‘ई हमरोॅ परिचय नै खाली
हमरोॅ प्रण के सिद्धिदाता
हर विपदा में माय-ममता रं
आरो पिता जकां ही त्राता।’

‘एकरा दै के मतलब छेकै
प्राण गमैबोॅ कायर हाथें
प्रण तभिये तक पालेॅ पारौं
जब तक ई दोनों छै साथें।’

‘लेकिन याचक केॅ ठुकरैबोॅ
एकरा सें नै पाप बढ़ी केॅ
आय भले नै बोलेॅ, बोलेॅ
कल बोलतै सर खूब चढ़ी केॅ।’

‘की सोचै छौ मन में तोहें
जों कुछ हिचक उठी ऐलोॅ छौं
तेॅ बोलोॅ लोटी केॅ जाय छी
पाप लगेॅ जों फेनू आबौं।’

‘हम्में तेॅ जानी केॅ ऐलां
तोरोॅ रं नै दानी भू पर
की धरती के कोना-कोना
ऊपरो तक नै देखौं द्यू पर।’

एतना बोली चुप भै गेलै।
भाव गमै के ही कोशिश में
चेहरा पर उठलै सोभावो
कौनी कौनी रं के किस्में

तभिये बोली उठलै राधेय
‘सुनोॅ विप्र भेषोॅ में सुरपति
खाली हाथ नै कोय गेलोॅ छै
आरो नै खाली हमरोॅ सत्।’

‘तेॅ केना केॅ तोहें जैभौ,
लेकिन हमरोॅ एक अरज छै
आरो तोहें जे कुछ मांगोॅ
जे मांगबौ, हमरा लेॅ रज छै।’

‘मांगोॅ एक देस की, सौ गो
ऊ भी जीती तोहरा देभौं
एक स्वर्ग की, सौ स्वर्गोॅ केॅ
बोलौं दिन भर में लै ऐभौं।’

‘नै एकरा सें तोष अगर छौं
हमरोॅ प्राण समेटी लै ला
लेकिन माँगोॅ कवच नै कुण्डल
तोरोॅ तेॅ एक अधेला।’

‘हमरा लेॅ संकल्प मनोरथ
हमरा लेॅ सिद्धि जीवन के
विप्र बनी केॅ जों ऐलोॅ छोॅ
जीभ नै काटोॅ तों गोधन के।’

‘कोय बात नै लौटी जाय छी
हम्में सुरपति तहियो याचक
लेकिन तोरोॅ दान धर्म के
कल के होतौं बोलोॅ वाचक?’

‘कोय मोहवश हम्में मति ई
पपित कर्म के ओर झुकैलां
पाबियो केॅ की हम्में पैबोॅ
जों हम्में ई पाबियो गेलां।’

‘बात खुली तेॅ जैबे करतै
बात सुनी तेॅ गेले ही छै
कल थुकतै सब हमरे मुँह पर
बदनामी तेॅ भेले ही छै।’

‘लोभ अगर जों ओछोॅ हुएॅ तेॅ
यश ओकरा सें कहिया मिललै
भले कल्प के गाछ रहेॅ ऊ
फूलोॅ बदला कांटे खिललै।’

‘कुछ वक्त्ी लेॅ भले खुशी छै
कुछ वक्ती लेॅ गदगद हो ला
लेकिन हीरा हाथ लगै नै
खाली गुदड़ी, खाली झोला।’

‘लौटे छी, कतना की बोलौं
आपनोॅ अन्तस केॅ की खोलौं
पाप कर्म के बोझ अथा छै
भीतरे भीतर एकरा तोलौं।’

‘कवच आरो कुण्उल नै पाबौं
लेकिन अपयश तेॅ लिखले छै
भले स्वर्ग के राह दिखाबेॅ
एकरोॅ अंत नरक लिखले छै।’

‘तोरोॅ तेॅ यश समय-काल सें
कभी नै बुझतौं कभी नै धूमिल
कभी नै मुरझैतौं कोय वक्ती
कभी नै होतौं चंचल-पंकिल।’

‘ठहरोॅ सुरपति, ठहरोॅ-ठहरोॅ
हमरा नै कोय यश के किंछा
हमरोॅ एक्के धर्म-दान बस
एक्के हमरोॅ प्रण मनबिच्छा।

ओकरे लेॅ जोगैलेॅ छी ई
कवच आरो कुण्डल केॅ हम्में
आय वहीं जों चाहै छोॅ तेॅ
छोड़ै छी सम्बल केॅ हम्में।’

‘आय जीत केॅ तेजी रहलौं
हार कवच रं पिहनी लेबोॅ
सचमुच विधिये वाम कर्ण के
कत्तो हेलौं थाह नै पैबोॅ।’

एतना बोली वीर प्रतापी
स्थिर होलै कर्ण जरा टा
पिता सूर्य केॅ याद करलकै
पिता सूर्य केॅ याद करलकै
मंत्र पढ़लकै मन-मन कै टा।’

फेनू लै तलवार म्यान सें
छीली देलकै कवच देह सें
खींची लेलकै कान सें कुण्डल
जरियो टा नै मोह नेह सें

लथपथ लोहू सें सनलोॅ ऊ
सौंपी देलकै सुरपति हाथें
देव-पितर सब सन्न-काठ रं
है की भेलै बाते बातें।

गूंजी उठलै दशो दिशा में
‘कर्ण तोंही नरभूषण-नरपति
शील तोहीं सौन्दर्य धरा के
तोरोॅ सम्मुख की सुर-सम्पत्ति?’

‘इखनी कोय कुछ बोलेॅ लिखी लेॅ
कल जे ऊ इतिहास लिखैतै
वैमें तोरोॅ गुण-शीलोॅ के
कोय बराबर पद नै पैतै।’

‘तोंय भावी के एक उदाहरण
सौंसे दुनियाँ करतै धारण
तोरोॅ गुण केॅ यश-कीरत केॅ
पापोॅ के बस एक निवारण।’

बरसें लागलै फूल स्वर्ग सें
हिन्नें सुरपति आरो बेकल
जिनकोॅ हाथोॅ में पड़लोॅ ऊ
कवच आर कुण्डल तक चंचल

सुरपति के चेहरा मलीन छै
जना कुहासोॅ बीच चनरमा
कर्ण सूर्य रं दिपदिप दीपै
भेद पेड़वा आरो पनरमा।

बान्ही लेलकै वसन-बीच में
कवच आर कुण्डल केॅ झब-झब
की सोची आखिर याचक के
आँख हुवै छै भारी, डब-डब

भारी मन सें आखिर बोललै
‘हे अंग देस के अंग राज
तोरोॅ दानोॅ पर तेॅ अर्पित
छै कुरुक्षेत्र के विपुल ताज।’

‘है ला अमोघ ई अस्त्र विकट
जे जैतौं नै खाली कभियो
लेकिन बस ई एक मरतबा
बात नै राखियोॅ टाली कभियो।’

दै अमोघ ऊ अस्त्र तुरत्ते
सुरपति होलै अन्तर ध्यान
अंग देस रोॅ रोआं कपसै
ऊपर में सूरज भगवान।