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कृष्ण लीला / भाग 2 / दर्शन दुबे

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चीरहरण लीला

कवित्त

एरी सखि, चीर नहिं देखै छिय तीर पर,
नंगी सब नीर में, उपाय कोन करबे?
केकरो न काज दस्युराज सिरताज बिनु,
चोरि से उठाय के कदम्ब डार धरबे।
जाति के अहीर लाज लागे (छै) शरीर नाहिं,
नाँगटी उधारि कैसें नीर सें निसरबै?
दर्शन लुकाय कान्ह आछये कदम्ब चीर
माँगु कर जोरि, नहिं नीर लाज मरवे॥6॥

सवैया

घनश्याम बिना तोहरे ब्रज में नहिं ऐसन जे सकतै करने?
युवती सब नीर उलंगिये छी प्रति लाज सशील चहै मरने।
सब चीर के देवहु तीर पै डारि के ती सब छी तोहरे शरने;
द्विज दर्शन हानि गलानि बिचारु करै के भलै कुल के धरने॥7॥
झूठ किये ई है छेॅ सखी, हम देखले छी नहिं तोहर चीरा;
ई सब फूल कदम्ब के डार में फूटल छै जो प्रवाल वो हीरा।
आय के तीर कदम्ब समीप सु देखि ने जा युवती जे प्रवीरा;
दर्शन लाज सें काज की हाथ, कहै खिसियाय तिया सब नीरा॥8॥

मूरख ऐसन बात कहै छथ कि लाज लगे छै कोई घर में;
धिक्कधिकार छे कोटिक बार तों अन्मल छें जेकरा घर में।
भूषण चीरहु फूलै छै फूल सखी सुनले छें कि तरुवर में?
दर्शन बात कते चतुराइ के जात अहीर कि छै शरमें॥9॥

हम तो सखि जात अहीर के छी, तोहरा सब की छें वरांगन में?
लोक के हाल बिहाल टेवहीं परवाह नहीं छें उलंगन में।
आय के तीर समीप ले जावहु नारि सभे एक संगन में;
दर्शन चीर तभी लहभै नहिं के सकभे प्रण-भंगन में॥10॥

कवित्त

बहुत उपाय करी थकली नवेली सभे,
चीर नीर मध्य नहिं लिये कोय पालकी;
आखिर लाचार होय झाँपि कुच काम मौन,
नीचहिं निहारतें कदम्ब पास छालकीं।
बहुरि कहथि श्याम सूरज मनाय सखि,
दुयो कर जोरि के दिनेश गुण गालकी;
दर्शन जू पालकीन नीर पै भूषा कोय,
जब लों नहिं लालजीक कहल बनालकी॥11॥

कवित्त: वसंत

कोकिला कलोलै छैय कुंज-कुंज छोलि-डोलि,
पुष्पित लतान अलि-पुंज गुंज दरसै;
फूले तरुबृन्द लागि शीतल समीर मंद,
मंजु मकरंद चहु ओर छेय सरसै।
गामन में गाँवन धमार धधकात धूम,
घूम-घूम अबीर-गुलाल रंग बरसै;
दर्शन जू कन्त बिनु कामिनी के तन्त अति,
पीर के न अन्त ई वसंत जिय तरसै॥12॥

विरह वियोगी तिय लैवे कोमलैज पौन,
चाहै तन लागै लगे दाहक विष छावै छै;
पंचम नवल राग सने कोक के कलान,
कुंजन में पुंज-पुंज कोकिलन गावै छै।
चटके प्रसून चंचरीक सुनि चाटुपाद
के न मोचै सोचै मिलन सुहावै छै;
दर्शन जू गामन में आमन मुकुल झौर
ठौर-ठौर भौंर से वसंत अब आवै छै॥13॥

मंजुल मलैज महकान लहलही पात,
लाल लही पवन प्रसंगमु लतान में;
वापिक-तड़ाग कंज बागन गुलाब खिलै,
फूलै महमही सब महि आशमान में।
कोकिल-कुहुकि झूकि-झूकि भौंर झौरत,
सुचोप सुठि विहंगम वितान में;
दर्शन जू काम के कटक चढ़ै चारो ओर,
नेक ना अटकै वसंत के निशान में॥14॥

अम्बक अरुण मकरन्द रस भरे सोहै,
विविध विभूषण प्रसूत तन खाली छै;
कोकिल कहुक बैन बोलनि सर सरद कंुद,
कलि मानो दुति-दुति दीपति सुहाली छै;
चम्पक सुमन वपु सौरभ विभात वात,
आलिन जमात से अलिन्दगन भाली छै,
दर्शन जू प्यारी मनमोहन से राग भरी
खेलन वसंत के वसन्त बनि आली छै॥15॥

सवैया

बाजै छै ढोल मृदंग पखाबज डंफरु झाँझ सितार तमोरी;
ग्वालन बालक सँग गोविन्द महा अनुराग समाज बटोरी।
खेलन फाग सजे सब अंग उमंग भरे लै गुलाल (क) झोरी;
दर्शन होरी है, होरी है’ बोलत जात चले बरसाने की ओरी॥16॥
पाग सजे सिर पै बहुरंग लसे कलँगी मनि-मानिक हीरा;
भूषन भूषित अंग अनंग चलै उमगावत चीरा।
गावै छै गारी बज वै छै तारी उछालै छै बाँह धरै नहिं धीरा;
दर्शन झोरी में लै के अबीर पिचकारि सें छोरिक रंगै छै चीरा॥17॥

कवित्त

खेलह जु फाग प्रेम पागे अनुराग भरे
होय के निशंक भाग सोहतै हमारो जू;
मेलह गुलाल गाल दूयो कर माँहि लाल,
रंग पिचुकारि ताकि-ताकि हिये मारो जू।
देबहु अबीर वीर भाव मन भावै जहाँ
लोचन बचाय सब अंग माँहि डारो जू;
दर्शन ‘पड़ै छो पाँव’ कहै छै मयंकमुखी,
अचलप के छोरि मोरि घूंघट ने कारी जू॥18॥

सवैया

बावरे काहे होवै छह साँवरे रावरे गरुर आज निकारती;
राधिका आवती साज सजी उमगावति तोर दिमाग बिसारती।
घेरि किये (काहे) पथ छेॅ किये राखै छह होय निशंक में भीर विचारती
दर्शन तोर चलाँकी नें निभृत देखतें लाल तोरे करि डारती॥19॥

कवित्त

साँवरे के संग फाग खेलि के उमंग भरि
सुन्दरि सुजान सुठि नेह सरसाबै छै;
चूनरी सुरंग राँगे सोहै छवि दूनरी छै,
अंगन-अनंग की तरंग उमगावै छै।
सुन्दर सुडौल छै कपोल में गुलाल मढ़े,
भाल में अबीर चीर चोली छवि छावै छै;
दर्शन जू भोली-भलीलागै छै अनूप रुप,
प्रेम के स्वरूप मनों जगत भुलावै छै॥20॥
एक ओर ले के संग मोहन सुशील सखा
गावै छै धमार धूमि घूमि रंग बोरी छै;
एक ओर सोहै छै सखिन के सभीन मध्य
फेंट में अबीर बृषभानु के किशोरी छै।
दर्शन मृदंग मुँहुचंग डफ ढोल झांझ,
कबीररऽऽऽ की बहार महिं थोरी छै;
चलै छै पिचिकारि दुहुँ ओर लाल बूँका
तकि झोरी रोरी श्यामाश्याम जी के होरी छै॥21॥

काहे मन मोरी छें अचेत ह्वै किशोरी आजु?
खेल खेल होरी नहिं केकरोहु चोरी छै;
सुखद वसन्त में पहिरि के वसन्ती चीर
सोरहो सिंगार के अबीर लाल झोरी छै।
भरी पिचकारी में रंगीली रग ढारी धाय
गाय रस राग फाग श्याम रंग बोरी छै;
दर्शन जू लाज के न काज ब्रजराज आज
द्वार पै बिराज खेलु भोर-भोर होरी छै॥22॥

एक ओर मोहन सुजान सखा संग सोहै
एक ओर श्यामा सँग गोप की किशोरी छै;
बाजत मृदंग मुँहचंग फाग को तरंग,
रंग ओ अबीर की बहार नहि थोरी छै।
फूँकन अबीर को उड़ावत गोपाल सखा,
मोहिनी जू डारै पिचकारी रंग-घोरी छै।
दर्शन जू बीथिन में विपिन बजारन में
देखो जहाँ आज ब्रज होरी छै, होरी छै॥23॥

कालिंदी तीर रचि होरौ गोप की किशोरी
झोरी भरि रोरी लै पिचीकारी रंग घोरी छै;
धाम श्याम जू के पट छीनि रंग बोरी बरसाने
बीच लायो गहि बाँह बरजोरी छै।
सारी जरि बारी कटि माँहि पहिराइ प्यारी
माँग को संवारि दई भाल लाल रोरी छै;
दर्शन जू गाल मली बाँह झकझोरि है
खेलो श्याम होरी आज, होरो आज, होरी छै॥24॥

अंग रंग बोरी घर आई खेलि होरी
बृषभानु की किशोरी प्रति उपमान थोरी छै;
श्याम को बनाई कोरी गोरी पहिराई
नाक बेसरी अँजाई आँख कज्जल नखोरी छै।
चूरी चूनरी सुकंचुकीन छोन छवि सोहै,
जग माँहि जौन मोहै सो रुप अति भोरौ छै;
दर्शन जू कोई गाल मलत गुलाल भाल
माँग माँहि डारत अबीर कहि होरी छै॥25॥

दाव पाय भागै श्याम कहि के सुनाय सखि
अबरि न चूक है सब कसक तिहारो छै;
जाय के बटोरि के समाज ब्रजराज कहै,
खेलो गाज होरी जौं लौं राधिका नें हारी छै।
गावत बजावत सुनावत विविध विधि गारी
दियै तारो कोई बाँह के उलारी छै;
दर्शन जू आये बरसाने मनमाने फाग,
रंग अति डाल सखा संग बनवारी छै॥26॥

सुनि के धमार ज्योंहि आई द्वार देखिबे को
त्योंहि श्याम लीन्हों घेरि नवल किशोरी छै;
बाँह झकझोरी कचुको को बंद तोरो
कुच पकरि मरोरी श्याम चुम्यो मुख मोरी छै।
आज करे होरी कहौ नवल किशोरी कस
बूक भरि रोरो गाल मेले लाल तोरी छै;
दर्शन जू ताल देत गोपन के लाल
चहुँ ओर घेरि खेलै ऐसो श्यामाश्याम होरी छै॥27॥