भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहलोॅ छै पुरबैया पीर / राजकुमार

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:39, 26 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजकुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatAngikaR...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहलोॅ छै पुरबैया पीर
अक्षर-अक्षर चुभलोॅ तीर,
मंजरैलोॅ डार-डार महुआ रसालोॅ के
टीसै छै टेसू रोॅ टेस रंग गालोॅ के
सूरता में उड़लोॅ शरीर।
कचनारी रंग लेनें बासंतो सारी छै
सिम्मर रोॅ फूलोॅ पर गंठली सुपारी छै
अँचरा उघारै समीर।
पत्ता-पत्ता फुजलोॅ रिसरिस रस रीसै छै
बौरैलोॅ पछिया बहीर।
दखिनाहा झिमिर-झिमिर झूम-झूम झीरै छै
चन्दन रोॅ बगिया केॅ चाँदनी अगोरै छै
खींचै छै उत्तरां लकीर।
राज मधुमक्खी रोॅ छत्ता छै डारी पर
नीमो रोॅ पत्ता छै झूकलोॅ खुमारी पर
उमतैलोॅ मौसम अधीर।