भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हेनोॅ विष-विष शिशिर / ऋतुरंग / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:23, 27 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=ऋतुरं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हेनोॅ विष-विष शिशिर,
रहै नै दै छँ यें देहोॅ केॅ थिर
हेनोॅ विष-विष शिशिर।

जाड़ोॅ रोॅ जोगिन दै चारो दिश फेरा
घुमी-घुमी बान्हैं कुहासोॅ के घेरा
सब्भे बन्हैलै जाय गोड़ोॅ सें सिर
हेनोॅ विष-विष शिशिर।

जेकरोॅ नै भागोॅ में रूई नै दुई
बोरसी के बीचोॅ में ऊ छुईमुई
दलकै छै, दलकलोॅ रातिके पहिर
हेनोॅ विष-विष शिशिर।

हुनकोॅ वियोगोॅ में जे रङ मन दहकै
कैहिनें नी हाड़-माँस लकड़ी रङ लहकै
जाड़ां तेॅ जोरने रङ पोरै रुहिर
हेनोॅ विष-विष शिशिर।

-6.1.97