भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रामधनी / रजनी मोरवाल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:10, 5 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रजनी मोरवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
टुकड़ा-टुकड़ा बेच रही है
ख़ुद को रामधनी ।
मँहगाई की मार झेलती
छत पहले टूटी,
उस पर विधवा होकर
किस्मत की आँखे फूटी,
पूछ रहा ले कर्ज़ बिजूका
यह किसकी करनी ।
दीवारों के गिरे पलस्तर
बेसुध भय खाते,
ढाँप-ढाँप मुहँ चूल्हे के संग
बच्चे ठिठुराते,
दुःख की छाछ बिलोते हारी
काया की मथनी ।
भूखा पेट नींद के घर में
रात जगाता है,
करवट-करवट मजबूरी की
याद दिलाता है,
बिना किए गोदान तरेगी
कैसे वैतरनी ?