आँधी केॅ देखै लेॅ आरो परहेज लेॅ / अमरेन्द्र
आँधी केॅ देखै लेॅ आरो परहेज लेॅ
आबेॅ जरूरी छै-खिड़की पर काँच लगेॅ।
की रँ लहरावै छै बाहर मेँ बिन्डोबोॅ
धरतीं उड़ावै छै-धुरदा-कोबोॅ-कोबोॅ,
एकदम तपासलोॅ लू देह-मुँह झौंसै छै
बुतरू कॅे जेना कोय अंगुलीमाल धौंसै छै
निर्दय-निर्मोही समय भेलै हेने कसाय,
बाँही पर कड़कड़ाय जेना कि पाँच लगेॅ।
है रँ बतासोॅ मेँ गिद्धा रोॅ मौज छै
भाँड़ी मेँ हकहक कबूतर रोॅ फौज छै
काठोॅ रँ मोॅन, दीया दुक्खोॅ रोॅ चाटै छै
तहियो करेजोॅ नै देवोॅ रोॅ फाटै छै
हेनोॅ समाजोॅ केॅ, धरम-धर्मराजोॅ केॅ
कथी लेॅ जीत्तोॅ छै? आँच लगॅे।
उटक्है-पैंची मेँ भिड़लोॅ सब-बिरनी रँ
कोय नैं सँवारै समाजोॅ केॅ-चिरनी रँ
मरी रँ महकै छै आसन रोॅ देवता
भोगोॅ के बदला पुजारिये केॅ भोगता
झोंलगा छै जिनगी के इन, चाम, जम, राज
हेकरे जरूरत छै, यैमेँ ओराँच लगेॅ।
‘आज, पटना, 11 जनवरी, 1998