भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छपरी पर गमलै छै कागा, के ऐतै? / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:05, 8 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=कुइया...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहिया सेँ बाबू रोॅ अचके सेँ प्राण गेलै
गोतियो भी डीहो दिश अनचोको नै ऐलै
आसरा मँे औसरा पर बैठलोॅ छी केकरा लेॅ
बचलोॅ ई औरदा अकारथ ही जैतै।

ऐंगनो उदामोॅ छै। पहिलो सेँ की छेलै?
हिस्सा रोॅ गाछ-बिरिछ काकां सब लै गेलै
जों कजायद पहुनो कोय अनचोके आविये जाय
चिंता सेँ गललोॅ जावँ-की देवै? की खैतै?

ठेका मेँ पीपर आ बोर गाछ कटी गेलै
पोखर भतैलै, भैयारी में बँटी गेलै
बचलोॅ इनारा के पानी कदोड़ छै
कंचन रँ ठनकोॅ टा पानी हौ! के पैतै।

पछिया केॅ की कहियै, पुरबैं जी जारै
उस्सट रँ जिनगी सेँ कोमल मन हारै
मतछिमतोॅ मौसम तेॅ आवै लेॅ बाँकी छै
जेठो-बैशाखोॅ रँ धाव हुवै चैतै।