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तितिर-बितिर किंछा सब गोछियावोॅ / अमरेन्द्र
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तितिर-बितिर किंछा सब गोछियावोॅ
सांझ भेलोॅ आवै छौं लौटे के-आवोॅ।
पर्वत रोॅ फुनगी पर जाय चढ़लै किरिन
खोली मेॅ आँख मुनी सुती गेलै दिन
आबॅे संझवाती के भुक-भुक रोॅ बेला छै
टापे-टुप फिन अन्हार, दू पल रोॅ खेला छै
आबेॅ की लाभ-शुभ करना छै-मटियावोॅ।
हाँक कौनें पारै छै रही-रही केॅ अनचिन्हार
औघट ई घाट छेकै अजगैती-अनभुवार
केन्होॅ अनकट्ठोॅ समय रोइयाँ तोंय काँटोॅ छै
आपने साँस मुहोॅ पर बोड़नी रोॅ झाँटो छै
तैय्यो लहर शीतला रोॅ केन्होॅ केॅ अनठावोॅ।
पानी पर आग बरै गोड़ रखी चलना छौं
पिपरी के मुँहोॅ सें मछरी निगलना छौं
सामने छौं युग-युग के जानलोॅ ऊ खाको वन
डबकी केॅ उधियावै आगिन पर आधन
नेहॉे के नीर-पीर छोड़ोॅ-पसावोॅ।