Last modified on 8 जून 2016, at 08:34

पन्द्रह अगस्त: 1947 / दिनेश दास

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:34, 8 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश दास |अनुवादक=उत्पल बैनर्जी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरी दोनों आँखों में छलछलाता है
पद्मा का अजस्र जल,
छलछलाती है मेघना की पुकार,
बादलों के प्रवाह की तरह स्तम्भित ... अवाक।

धूसर शहर में उठती है पुकार
दुपहरी में हवा बिखेरती है अवसाद
छिन्नमस्ता बस रक्त का आस्वाद करती रहती है।
सूखे पत्ते-सा उड़ आया स्वाधीन सनद,
सीने में बसी पद्मा से दूर सिन्धुनद
यहाँ मेरी आँखों में उठाता है लहरें,
फिर भी बढ़ता जाता है मुक्ति का प्रवाह
करोमण्डल के सीवान और साँवले मालाबार के कछार पर
गरजता है हिन्द-महासागर ।

यहाँ तो शंख की आरी से
चाक हो जाते हैं दिन आरी के दाँतों से
सीवान पर धब्बों की शक़्ल में
जमे हुए ख़ून के निशान हैं --
लंका का बँटवारा करता है कालनेमि ।

फिर भी आया स्वाधीनता का दिन
उजला रंगीन,
प्राणों के आवेग से व्याकुल --

पुकारती है माँ पद्मा
पुकारते हैं पिता सिन्धु-तीर।

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी