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ग्रीष्म : एक कविता / शैलेन्द्र चौहान
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झंकृत होती हैं
नाड़ियाँ
शिराओं का बढ़ जाता है चाप
तापमापी करता दर्ज़
तापमान
अड़तालीस डिग्री सैलसियस
कविताऍ होती वाष्पित जल-सी
उत्सर्जित होती
स्वेद-सी
फूटती मन और शरीर से
फैल जाती हैं
ब्रह्मांड में