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हमिंग बर्ड / मुकेश कुमार सिन्हा

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मैंने नहीं देखी है...
हम्मिंग बर्ड!! अब तक!!
तो, क्या हुआ?
मैंने तो प्यार व दर्द भी नहीं देखा
पर, फिर भी, लिखने की कोशिश कर चुका उन पर भी,
बन ही जाती है कविता!!

मेरी जिंदगी के
जिन्दादिली के चौखट पर,
जब भी कोई अहसास
देते हैं, दस्तक
मेरा 5 मिलीग्राम का छुटकू सा 'मन',
मारता है कुलांचे
सिमित शब्दों से भरता है रंग
आसमां से कैनवेस पर
दिख जाती है फड़फड़ाती हुई हम्मिंग बर्ड
एवें ही, बन जाती है कविता!!

मैं सोचता हूँ, लाऊँ
10-15 खट्टी मिट्ठी लाल-पिली गोलियां
ताकि भरूं बच्चों सी मुस्कराहट
मेरे पास हो, अगर
आटे की छोटी-छोटी नमकीन या मीठी लोई
ताकि पानी में उनको टपकाते ही
करें अठखेलियाँ, मछलियाँ
फिर बचपन व एक्वेरियम, मछलियों का
और क्या?
बस, ऐसे ही तो बन जाती है कविता!!

ऐसे ही कुछ कल्पानाएं जीवंत करते हुए
रचते हुए कुछ कविता
आती है आवाज!!
सुनो, जल्दी आओ, खाना कर रहा इंतज़ार
डाइनिंग टेबल पर...
उफ़!! अभी तो मेरे हम्मिंग बर्ड ने
भरी ही थी उड़ान
मुस्कुराया था मेरे अन्दर का बालपन
निहार ही रहा था एक्वेरियम!!
चलो यार! इन बर्ड्स, बच्चों व मछलियों को भी
लग गयी होगी भूख
फिर कभी लिख लेंगे कविता!!

मुझे लिखनी है, ऐसी ही
बहुत सी बेवजह की कविता
जिंदगी के हर रूप की कविता!!

आखिर ऐसे नहीं बनती किताबें? है न!!