भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुनर्वास / शैलेन्द्र चौहान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 26 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलेन्द्र चौहान }} मन होता जब क्लांत बनती प्रकृति सहच...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन होता जब क्लांत

बनती प्रकृति सहचरी

यह तो है सौभाग्य

हिमालय श्रृंग और चीड़

निकट पा जाता

निहारता उत्कंठा, कौतूहल

और ललक से

स्मृतियों के पहाड़ पीछे

बहुत घने

पहुँचते जंगलों में

सागौन

स्काउट बन सीखता

पहचानता जंगल के रास्ते

संकेत से

झरने का बहता

स्वच्छ पानी,

बीच जंगल

मिल बैठ कर खाना

मन में कितना मीठापन !