भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये भारत के लाल / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:08, 14 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह=अम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कक्षा बारह
उमर अठारह
बढ़े हुए हैं बाल
लगा रहे हैं घोटा दिन भर
ये भारत के लाल
रात दो बजे
सोते हैं ये
सुबह सात पर जागें
उठते ही आनन फानन फिर
साइकिल ले कर भागें
हुई दोपहर
लौट रहे हैं
लिए पसीना भाल
जो जितना
संघर्ष करे
वो उतना आगे जाए
पीछे के दरवाजे से पर
कोई न आने पाए
अब तो
हर प्रदेश में
लेकिन फैला व्यापम जाल
मुखिया जी
कुछ करो
कि पैदा होते रहें कलाम
वरना व्यापम के साहेब को
अब्दुल करें सलाम
बद से
बदतर हुई जा रही
हालत सालों साल
कक्षा बारह
उमर अठारह
बढ़े हुए हैं बाल
लगा रहे हैं घोटा दिन भर
ये भारत के लाल।