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अंजुरी भर नेह / अर्चना कुमारी

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त्वचा की झीनी परत के भीतर
हरी रक्तवाहिनियों में
बसा लाल रंग
स्वाद में नमकीन होता शायद

सुना है रहती है एक दुनिया
समन्दर के भीतर भी
आजमाऊँगी किसी दिन सूक्ष्मदर्शी
मुझे नमक में मीठे की तलाश है

निशा के गहरे पहर के कण्ठ में
जाने कौन सी हवा जबरन कब्जा करती है
सुरसुराहट उपजती है
मर जाती है नींद अल्पायु में

कमरे कोई हलचल नहीं है सपनों की
न दीवारों पर है परछाई
पानी पीकर ठंढाई देह एक किनारे पड़ी
टहलती है खुद में ही

यादों की चहलकदमी की आहट
पंखे की हवा कम कर दे शायद
खुली खिड़कियों से दिखता है
किताबों में उलझा उदास चेहरा कोई

ठीक दो बजे गूँजती है एक अावाज़
जिसके दाँतों तले दबी है टीस
तल में पीर छुपे नीर के
मुस्कान के रहस्यों में
कि कब रहता है बुरा हाल मेरा

लौटकर अपने हाल पर
उसके मन की माला में
मोतियाँ पिरोती हूँ
जाने क्या पीसती हूँ चक्की में
जाने क्यों रोती हूँ
दुनिया के दीर्घायुष्य में
अल्पायु मैं
जाने कब अकाल मृत्यु प्राप्त कर गयी
अंजुरी भर नेह लिए
तुमसे/तुम्हारे लिए॥