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छिपी भी / केदारनाथ अग्रवाल
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छिपी भी
न छिपी रह सकी हो तुम
भावों में अपने
खुल गई हो तुम,
जैसे खुल गई आँख
सजीव स्वप्न से भरी
चांदनी दर्पण में
कोई देखे, या न देखे,
मैं देखता हूँ तुम्हें ।
मौन भी
न मौन रह सकी हो तुम
वसन्त में अपने
मुखर हो गई हो तुम
जैसे मुखर शंख-से बजते रंग
फूल की मौन पंखुरियों से,
कोई सुने या न सुने,
मैं सुनता हूँ तुम्हें ।