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गीत 10 / सोलहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्‍गलपुरी

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मूढ़ मनुख हमरा नै पावै
निज स्वभाववश जनम-जनम आसुरी योनि में आवै।

नीच स्वभव धरै जे प्राणी, नीचे गति के पावै
घुरि-घुरि पावै नरक लोक, या घुरि-घुरि जग में आवै
काम-क्रोध अरु लोभ तीन टा नरक द्वार कहलावै
मूढ़ मनुख हमरा नै पावै।

हे अर्जुन ई मूढ़ आप छिक अधोगति के कारण
हय तीनों के त्याग बिना नै एक्कर कोय निवारण
नारी में, दुश्मन में, धन में, हरदम चित्त लगावै
मूढ़ मनुख हमरा नै पावै।

व्यभिचार-चोरी अरु हिंसा, नित नव पाप बढ़ावै
अपनोॅ घृणित चरित रचि केॅ, दुनिया में अपयश पावै
है दुरमति के किरति जग में आतम नाश कहावै
मूढ़ मनुख हमरा नै पावै।

मन के दूषित विचार सहज ही सब के बुद्धि बिगारै
बुद्धि बिगरते ही प्राणी अपनोॅ इन्द्रिय से हारै
जब इन्द्रिय सब संयम त्यागै, पुरुष पतित कहलावै
मूढ़ मनुख हमरा नै पावै।