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मिसिर जी / जयप्रकाश मानस

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कितनी बार

न जाने कितना बार

वक़्त की गाज़ झेला हूँ

दुर्निवार मौत के साथ

कबड्डी खेला हूँ


कितनी बार

न जाने कितना बार

सबूत चुटाने पड़े हैं

वायवी तारकोली कंलकों से

चेहरे की चमक

साबुत बचा लेने के लिए

कितनी बार

न जाने कितनी बार

आकांक्षाओं को दफ़नाया है

बुदबुदाहट तक की

पाबंदियाँ झेलते हुए

सपनों को करनी पड़ी है

ख़ुदक़ुशी


कितनी बार

न जाने कितनी बार

मिसिर जी

अब क्या टूटूँगा

झूलूँगा अब क्या डोरे से

ऐसे ही नहीं पहुँचा हूँ

इस मुकाम पर