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पुरातत्ववेत्ता / भाग 1 / शरद कोकास

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हर पल के बीतने में यह अतीत का ही विस्तार है
जो अपने भीतर समेट रहा है विश्व में घटित समस्त घटनाएँ
दूर से दिखाई देने वाले पूर्णविराम के बाद भी है उसका अस्तित्व
जहाँ मनुष्य की नज़र नहीं वहाँ भी वह विद्यमान

पूस की रात में जब समन्दर पार कर दक्षिण अफ्रीका से आती हैं हवाएँ
शामिल होती उसमें पृथ्वी के पहले मनुष्य की देहगंध
जो अपने ही शरीर से उठती मालूम होती है

अपने आदिम रूप से काल का यह वर्तमान इतना बेख़बर
कि उसकी स्मृति में सिर्फ़ सुनी हुई गाथाएँ और आख्यान
और मनुष्य की यह नस्ल इतनी शातिर
कि हवाओं को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने में सबसे आगे

वस्तुओं की तरह मनुष्य कर रहा मनुष्यों का उत्पादन
वस्तुनिर्मित मनुष्य और मनुष्य निर्मित वस्तुएँ साथ हैं
भीड़ से अलग दृश्यमान कुछ कवि लेखक वैज्ञानिक और इतिहासकार
काल के इसी खंड में उपस्थित पुरातत्ववेत्ता उनके साथ हैं
जिनकी देह में हैं वही कोशिकाएँ जो उनके पुरखों की देह में थीं
जो ठीक उसी तरह बोलते चलते और काम करते हैं
जैसे कि उनके पूर्वज किया करते थे
कुदाल पकड़ते हैं उसी तरह और कलम भी
इसलिए कृतघ्न नहीं वे उनके प्रति कि भूल जाएँ
लाखों वर्षों में अर्जित उनका यह रूप उनकी ही देन है
इधर पृथ्वी के गर्भगृह में स्थापित समय के रंगमंच पर
घटित हो चुका समय अपनी जड़ता में इतना सजीव
कि उनके इशारे पर फिर गतिमान हो उठा है
दर्शक दीर्घा की हर सीढ़ी पर दृश्य के ही प्रतिरूप हैं
अपनी ऊँचाई की अन्तिम सीढ़ी पर खड़े पुरातत्ववेत्ता
मंच तक पहुँचने के लिए सहस्त्राब्दियों की सीढ़ियाँ उतर रहे हैं

अभी धरातल पर विगत दो सहस्त्राब्दियों के दृश्य
सलीब से टपकते रक्त में वक़्त लिख रहा अपनी गिनती
आश्चर्य यह कि जो नहीं था जिस समय में
उस समय की गणना उसी के नाम से हो रही है

(ईसा के पूर्व के काल की गणना भी ईसा के नाम से ही होती है )

दृश्य में हैं पुरातत्ववेत्ता और वे दर्शक नहीं हैं
काल की ऐतिहासिक निरपेक्षता में महज सूत्रधार भी नहीं
प्रतिभा की भीड़ में उपस्थित हैं वे अपनी भूमिका तय करते हुए
और शताब्दियाँ भी उनसे संवाद के लिए बेताब

पहली सहस्त्राब्दि की नीचे उतरती सीढ़ी पर
जहाँ आकाश अटलांटिस की पीठ पर टिका है
सोने के सेब की खोज में भटक रहा है हर्क्यूलिस
मैराथन से दौड़कर आते एथेनी योद्धा के पाँव
स्पार्टकस की देह से टपके लहू में सने हैं
दासों की मन्डी से आती है स्त्रियों के रोने की आवाज़
इतिहासकारों की निरक्षरता पर हँस रहे हैं सिन्धु घाटी के नगरजन

(हरक्युलिस की कथा :यूनान या ग्रीक पौराणिक कथाओं के अनुसार यूनान का शक्तिशाली वीर हर्क्यूलिस एक बार सोने के सेब की खोज में निकला। यह सेब यूनान के पश्चिम में महासागर के तट पर एक बाग़ में उगा था। यूनानियों के विश्वास के अनुसार वहां आकाश पृथ्वी तक झुक आया था लेकिन वीर अटलांटिस उसे अपनी पीठ पर थामकर नीचे पृथ्वी पर गिरने से रोके हुए था। हरक्युलिस ने उससे सेब तोड़ने हेतु निवेदन किया।जब तक अटलांटिस सेब तोड़ता हरक्युलिस ने आकाश अपनी पीठ पर थाम लिया जिसके भार से वह घुटनों तक पृथ्वी में धंस गया। इसी वीर अटलांटिस के नाम पर अटलांटिक महासागर का नाम पड़ा है।)

(स्पार्टकस की कथा : रोम में युद्धों के दौरान अनेक युद्धबंदी बनाये जाते थे और उन्हें दास बना लिया जाता था। इन दासों से 20 -20 घंटे मजदूरी करवाने, खेती करवाने, खदानों में काम करवाने के अलावा मनोरंजन के लिए इन्हें आपस में और खूंख्वार जानवरों से लड़ाया भी जाता था जिसमे उनकी जान जाना तय रहता था। इन्हें ग्लेडिएटर कहते थे। स्पार्टकस उस प्रसिद्ध दास विद्रोही ग्लेडिएटर का नाम है जिसने 71 ईसापूर्व में रोम के शासकों द्वारा दासों के शोषण और उनके इस खूनी खेल के विरुद्ध एक संगठित विद्रोह किया था। स्पार्टकस के इस विद्रोह को शासकों द्वारा कुचल दिया गया और उसे मार डाला गया। उसके छह हज़ार से भी अधिक साथियों को प्राणदंड देकर रोम से कापुआ के रास्ते में सलीबों पर लटका दिया गया। क्रन्तिकारी स्पार्टकस का नाम हमेशा के लिए अमर हो गया।)

(मैराथन की कहानी – 490 ईसापूर्व में पारसिक सम्राट दारा अथवा डेरियस ने इजियन सागर पार कर यूनानियों पर हमला किया।यह लड़ाई एथेंस से 42 किलोमीटर दूर मैराथन नामक स्थान पर हुई।यूनान की दस हज़ार की सेना, फारस की सत्तर हज़ार की सेना के मुकाबले बहुत कम थी लेकिन वे जी जान से लड़े और उन्होंने फारस की सेना को हरा दिया। नागरिकों को विजय का यह समाचार देने के लिए एक एथेनी योद्धा दौड़ता हुआ मैराथन से 42 किलोमीटर दूर एथेंस पहुंचा और ‘हम जीत गए’ कहता हुआ गिर कर ढेर हो गया। इस घटना की याद में 42 किलोमीटर की मैराथन दौड़ की शुरुआत 1896 के ओलम्पिक में हुई।)

(सिन्धु सभ्यता की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है।)

वहीं खड़े हैं हेरोडोटस उनके स्वागत में बाँहें फैलाए
मिथक और यथार्थ के मुखौटों में भटक रही कुछ कहानियाँ
पिरामिडों से बाहर फराओं के संरक्षित जिस्मों का शोर है
जो विद्रोह करे मार डालो उसे
कि सबसे खतरनाक शत्रु वह है जो ग़रीब है

( हेरोडोटस यूनान के इतिहासकार और भूगोलवेत्ता थे। उनका जन्म 484 ईसापूर्व में हुआ था। इन्हें इतिहास पिता भी कहा जाता है। फ़राओ मिस्त्र के शासक थे जिन्होंने अपनी कब्र के रूप में पिरामिड बनवाये थे। मृत शरीर से अंतड़ियाँ निकालकर उन्हें रासायनिक घोल में डुबोकर ममी के रूप में संरक्षित करने का चलन भी इसी समय शुरू हुआ। यह ममियां केवल संपन्न लोगों की बनाई जाती थीं। मिस्त्र के शासक बहुत क्रूर थे और सामान्य जनता का शोषण करते थे, शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले ग़रीब उनके सबसे बड़े शत्रु थे।)
 
ह्वांगहो के तट पर चटाइयों में लिपटे हैं शव
ट्रॉय के युद्ध में मृत सैनिकों के कंकाल समुद्र तट से गायब
धुएँ से भरे नगर में आँखें बन्द किये बैठे हैं होमर
जले हुए घोड़े का कोई अवशेष हो तो नज़र आए

(ह्वांगहो चीन की प्रसिद्ध पीली नदी है, जिसके किनारे पुरातत्ववेत्ताओं को दूसरी सहस्त्राब्दी ईसापूर्व की अनेक कब्रें मिली हैं जिनमें शवों को चटाइयों में लपेट कर रखा गया था। हर शव के निकट एक घड़ा मिला है जिसमें खाद्य सामग्री थी। इन कब्रों में सोने के आभूषण और बर्तन भी मिले हैं। मृतकों के शवों के साथ उनके दसियों या सैकड़ों सेवकों को भी जीवित या उनका सर काटकर दफनाया जाता था ताकि वे उस व्यक्ति की आत्मा की सेवा और रक्षा करते रहें – प्राचीन विश्व इतिहास का परिचय, प्रगति प्रकाशन )
 
(ट्रॉय की कथा : होमर यूनान के प्रसिद्ध कवि थे जिन्होंने ‘इलियड ‘ और ‘ओडिसी ‘जैसे प्रसिद्ध महाकाव्यों की रचना की, उनके बारे में कहा जाता है कि वे जन्म से ही दृष्टिबाधित थे। इन महाकाव्यों में वर्णित कथा के अनुसार प्राचीन यूनान में स्पार्टा के राजा मेनिलेयस की रानी का अपहरण ट्रॉय के राजकुमार पेरिस द्वारा कर लिया जाता है जिसे वापस पाने के लिए स्पार्टा वासी ट्रॉय पर आक्रमण करते हैं।यह युद्ध दस वर्षों तक जारी रहता है लेकिन कोई हार जीत नहीं होती। अंत में स्पार्टा के सैनिक एक विशालकाय लकड़ी के घोड़े के अन्दर बैठकर ट्रॉय नगर में प्रवेश करते हैं और रात में बाहर निकलकर नगर में आग लगाकर उसे नष्ट कर देते हैं, जिसमे लकड़ी का घोड़ा भी जल जाता है। लकड़ी के घोड़े का विचार देने वाले योद्धा ओडीसीयस की घर वापसी का वर्णन होमर के महाकाव्य ‘ओडिसी’ में है ।)
 
इधर दज़ला- फ़रात के दोआब में
लहलहाती है गेहूँ की फसल
कि जैसे देह लहलहाती है अपनी सबसे अच्छी उम्र में
बेबीलोन के बाग़ीचों में एक बच्चे की हँसी के समांतर
गूँजता है प्रलय के देवता का अट्टहास
जिसमें सबसे पुरातन होने का दंभ है
वहीं खजूर के बाग़ों से आती है पकते हुए गुड़ की महक

( दज़ला और फरात प्राचीन मेसोपोटामिया या वर्तमान इराक़ की प्रसिद्ध नदियाँ हैं।मेसोपोटामिया का अर्थ है दो नदियों के बीच का प्रदेश। यह प्राचीन सभ्यता का एक राज्य था जो दज़ला और फ़रात नदियों के बीच स्थित था।वर्तमान में यह प्रदेश आधुनिक इराक़, उत्तर पूर्वी सीरिया, दक्षिण पूर्वी तुर्की और इरान के कुछ क्षेत्रों में बंटा है। दज़ला का वर्तमान नाम टाईग्रिस और फरात का नाम इयुफ्रेटिस है।उस समय यहाँ बहुत अच्छी वर्षा होती थी फलस्वरूप इनके किनारे की मिटटी बहुत उपजाऊ थी और यहाँ आवश्यकता से अधिक फसल होती थी। फरात नदी के तट पर स्थित बेबीलोन एक व्यापारिक शहर था जहाँ के झूलते बागीचे मशहूर हैं। कांस्य युगीन सभ्यता का प्रारंभ यहीं पर हुआ था। 1792 ईसापूर्व में यहाँ प्रसिद्ध शासक हम्मुराबी हुआ। )

(प्रलय की कथा : प्राचीन मेसोपोटामिया में प्रलय की कथा का जन्म हुआ जिसके अनुसार एक बार देवता पृथ्वी वासियों से नाराज़ हो गए फलस्वरूप उन्हों पृथ्वी को पानी में डुबो देने का निश्चय किया।जलदेवता ने यह बात सरकंडों को बताई और उसने झोपडी के मालिक को। उसने एक बड़ी सी नाव बनाई जिसमे अपने परिवार के लोगों के अलावा शिल्पियों और पशु पक्षियों को बैठा लिया। फिर बारिश हुई और पृथ्वी डूब गई। पानी के उतरने के बाद कौवे ने उड़कर भूमि का पता लगाया और फिर नौका पर सवार लोग वहां उतर गए। मेसोपोटामिया से यह कथाएं अन्य देशों में पहुंची।)

कोई लेखक बैठा है चौथी सीढ़ी पर मिट्टी की पाटी पर अक्षर उकेरते
पाँचवीं सीढ़ी पर तांबे की थाली में बलि के बैल का माँस है

(लेखन की शुरुआत पांचवी सहस्त्राब्दी ईसापूर्व हो चुकी थी और गीली मिटटी की पाटी पर सरकंडे की कलम से अक्षर उकेरकर लिखे जाते थे। ताम्बे की थाली से तात्पर्य ताम्राश्म युगीन सभ्यता से है।ताम्बे की खोज लोहे की खोज से बरसों पहले हुई है।)

सफ़र की शुरुआत है यह
और जाने कितनी सहस्त्राब्दियाँ शेष हैं
मनुष्य की स्मृति में शामिल पीड़ा और अवसाद से भरी
सिर्फ़ यंत्रणाएँ हैं जिनमें या टूटे हुए ख्वाबों की किरचें
भूख और ग़रीबी की उबाऊ दास्तानें
जंग और साज़िशों के बेलज़्ज़त किस्से
पुरानी किताबों से दीमकों के साथ बाहर आ रहे
राजाओं और उनके वंशजों के बेतरतीब अफ़साने
और कुछ अजीबोग़रीब कहानियाँ
भूत - प्रेत, जिन्नात और देवताओं की

बहुत मुश्किल है पाँव में चुभे काँटे की टीस लिए चलना
और रुक जाने में भी कोई मतलब नहीं है

और अपनी स्वप्नजीविता में सुख की शैया पर लेटा मनुष्य
जिसकी स्मृतियों में बीते दिन नहीं ठहरते
जिसे चिढ़ है इतिहासबोध जैसे गरिष्ठ शब्दों से
जिसके मनमंदिर में बजती हैं सिर्फ़ वर्तमान की घटियाँ
नहीं चलना चाहता उनके साथ इतिहास की ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर
कि उसका अतीत तो फ़क़त होश सँभालने की उम्र तक है
और दुनिया के अतीत से उसे क्या लेना देना

बस पुरातत्ववेत्ता हैं जो चले जा रहे हैं
इसलिए कि वे श्रुतियों के आधार पर इतिहास नहीं गढ़ रहे
आस्था की नींव पर नहीं खड़ा कर रहे इतिहास का भवन
और इतिहास में अमर हो जाने जैसी
कोई भौतिक अभिलाषा भी नहीं उनके भीतर

और इतिहास के बारे में यह बात क़ाबिले गौर
कि उनकी नज़रों में वह नहीं है इतिहास
जो हुक्के के साथ गुड़गुड़ाया जा रहा चौपालों में
संस्कृति के पुरोधाओं के इशारों पर
जो मिलाया जा रहा खिलौनों और किताबों के नये संस्करणों में
विदेशी सत्ता से मिले ख़िताबों से शर्मसार होकर
खीझ और पश्चाताप की कलम से रचा जा रहा जो
वह तो क़तई नहीं जिसे उनके समकालीन
खोद रहे पूर्वाग्रह के औज़ारों से
और परोस रहे हैं
इस महाविशाल पृथ्वी पर रहने वाली प्रजा को
उसकी डायनिंग टेबल पर

इतिहास तो दरअसल माँ के पहले दूध की तरह है
जिसकी सही ख़ुराक पैदा करती हमारे भीतर
मुसीबतों से लड़ने की ताकत
दुख सहन करने की क्षमता देती जो
जीवन की समझ बनाती है वह
हमारे होने का अर्थ बताती है हमें
हमारी पहचान कराती जो हमीं से

ग़नीमत के वे इतने गुमान नहीं पालते
सिर्फ़ शब्द नहीं चमकते उनके बयानों में
न हलफ़नामों में ऐसी कोई बात
जिस पर उन्हें शर्म आये
न ऐसा विचार जिस पर सब घूम जाएँ
और वे बन जाएँ महात्मा आम आदमी की निगाह में
कोई योगदान नहीं उनका ध्वंस की पुनर्रचना में
नीतियों के निर्माण में कहीं दखल नहीं
सिर्फ़ एक तलाश पुरावशेषों के बेज़ुबान जिस्म में
भय से गुम हो चुकी एक पुरानी आवाज़ की

रूप रंग रस स्वाद और गन्ध के लिए सक्रिय
समस्त इन्द्रियों में संवेदना लिए
अपने दिमाग़ की होशियारी में वे तैयार हैं
कि अभी चेतन पर अवचेतन हावी नहीं हुआ है
न अपहरण हुआ है उनके निजत्व का
संसार की आँखें खुली हैं किसी प्रतीक्षा में
दृश्य की कसौटी पर रखा जा रहा है विगत का अदृश्य

यह सिर्फ़ कोशिश नहीं पृथ्वी के जीवन को क्रम देने की
और वे इसमें कामयाब न भी हो पाएँ
या कह न पाएँ अपनी बात खुली ज़बान में
तो विपदाओं का कोई पहाड़ नहीं टूटने वाला
चलेगी जैसी चलती है नामुराद दुनिया
रहेगा जीवन मस्त अपनी बची खुची साँसों में
जो होना है होगा अड़ियल भविष्य का
मिलेगा जिसको जो जो मिलना है

अगर होता इतना ही ख़याल इस पागल दुनिया का
तो कुछ और ही होता उनकी दुनिया का ढंग
वे सिर्फ़ खाते और सोते और बहुत हुआ तो
जागते कबीर की तरह रातों में और उठकर रोते
विस्मृति के सन्नाटे में सुनते आते दुखों की आहट
दूर खड़े रहते अस्पृश्य से संस्कृति की गौरव यात्राओं में
मगर वे खुद सोते हैं न सोने देते हैं उस अतीत को
जो सोया पड़ा है अलमस्त घुटने पेट से लगाए
गोद में उठाकर ले आते हैं वे उसे वर्तमान की सतह पर
अब उसके होश में ही हैं सम्भावनायें
कि उन्हें पता है यह अतीत स्वयं वक्तव्य देगा
संस्कृति और सभ्यता की गरिमामयी सभाओं में
उनके दुलार से जाग जाने के बाद

सतह के नीचे दबा हुआ इतिहास
महज बीता हुआ समय नहीं है उनके खयालों में
वह उजाले से पहले आने वाली एक काली रात है
एक उमस भरी दोपहरी शाम की बौछार से पहले
आलाप है गीत शुरू होने से पूर्व का
जिसमें शब्द नहीं हैं सुर हैं जीवन के
साँसों की लय है और ताल है धड़कन में
अभी लिखी जाने वाली हैं जिसके आगे पंक्तियाँ

दुःख के दिनों सी कठोर है बीते समय की पीठ
जिस पर खुदे हैं सहनशीलता के दस्तावेज़
जिसमें उन्माद है राह बदलती नदियों का
बेचैनी में करवट बदलती धरती का अभिशाप
सत्तालोलुपों के आक्रमण सिंहासन की अभिलाषा में
मवेशियों के रेवड़ हासिल करने के लिए खानाबदोशों के हमले
घास के मैदान पर पशुपालकों के बीच छिड़ी जंग
और इन्हीं के बीच कहीं अस्पष्ट सी लिखावट में
अपने अस्तित्व का अर्थ ढूँढते मनुष्य का संघर्ष

धूल से अटे ऐसे अनगिनत अभिलेख लिए
हताशा की गहराईयों में दबा है समय
छुपा है अपने चीन्हे जाने की प्रतीक्षा में
नदियों पहाड़ों समंदरों की तलहटी में पड़ा है कहीं
अक्षर इतने धुँधले कि पढ़ना मुश्किल उनमें लिखा सच
आवाज़ इतनी मद्धिम कि अपने आप ही को न सुनाई दे
जर्जर इतना कि डर है हाथ से फिसलते ही न टूट जाए

बस एक पहचान उनके मन में पुरातत्ववेत्ताओं के लिए
कि जिसके दम पर घटनाओं के आघात से गूंगा समय
फिर अपनी बुलन्द आवाज़ हासिल करेगा
आनेवाले समय के असहनीय शोर में
अजायबघरों की वीथिकाओं में नहीं सजेगा वह
तिलेदानियों और पवित्र वस्त्रों में लिपटी
पोथियों में क़ैद नहीं रहेगा ताउम्र
किन्ही कुचेष्टाओं में बंधकर बंदी नहीं होगा
मनुष्य के रचे टाइम कैप्सूल में
भविष्य के रजिस्टर पर अपनी शिकायत दर्ज कर
एक बार सही सही मूल्यांकन का अनुरोध करते हुए
ढूँढेगा वह अपनी नई पहचान
पुरातत्ववेत्ताओं की संशय रहित सजल आँखों में

यही हैं अपनी प्रजाति में आधुनिक मानव
ठीक मनुष्यों की तरह दिखाई देते पुरातत्ववेत्ता
कई हाथ नहीं हैं इनके देवताओं की तरह
दानवों की तरह अनेक शीश भी नहीं
सो इन्हें प्रसन्न रखने या भयभीत होने जैसी कोई बात नहीं
वेषभूषा भी ऐसी नहीं विचित्र
कि दुनिया में सबसे अलग नज़र आयें
हाँ कोट की जेबें ज़रूर कुछ गहरी हैं
उनमें हाथ डालो तो पिछली सदियों तक चला जाता है हाथ
कुछ कच्चे आलू हैं उनमें
जिन्हें भून कर खाया जा सके कभी भी
और डाला जा सके डेरा महीनों तक
सूचना के घने जंगलों में विलुप्त ज्ञान की तलाश में
उनके पास हैं अतीत के कुछ अनगढ़ ब्योरे
जिनके खुरदरेपन में उनकी उपेक्षा के हालात हैं
उन्हें गढ़े जाने का भय है उनके कच्चेपन में
उनके उपयोग के लिए स्वतन्त्र होते हुए भी
सही मायनों में स्वतंत्र नहीं हैं पुरातत्ववेत्ता
कहने को उनके पास ज़ुबान है

खुद अपनी पैरवी करते हैं ब्योरे
वही गवाह वही पुलिस वही न्यायाधीश
यथार्थ का बीहड़ है उनके पाँवो के नीचे
सबूतों के बगैर भी स्पष्ट हैं उनके अर्थ
और उन पर दोष मढ़ने में कोई अर्थ नहीं
कि बेजान चीज़ें कभी कसूरवार नहीं होतीं
और परिस्थितियों पर दोष मढ़ना
सिर्फ़ आदमी के दिमाग़ का कमाल है

फिर भी अनसुलझी रह जाती हैं कुछ गुत्थियाँ
जैसे कि कुछ रहस्य मनुष्य के जीवन में
कि बस्तियाँ अपने आप जली थीं या जला दी गई थीं
आग बुझ चुकी थी या सुलग रही थी राख के नीचे
हवा की संभावनाओं में कुछ इंसान शेष थे
या सपनों की गठरी पीठ पर लादे
सारे के सारे छोड़ गए थे बस्ती

कैसे पहुँचा था समुद्र का जल ऊँचे आकाश में
जिसकी चुगली खाती थी किले की दीवार पर जमी रेत
किसने दिया था उसे निमन्त्रण अपने सुख में प्रवेश का
या स्वयं उतावला था वह सब लील जाने के लिए
कि तीन चौथाई पृथ्वी निगल जाने के बावज़ूद
उसका पेट था कि खाली का खाली

आग चुप हवा चुप पानी भी खामोश
सबकी निगाहें आसमान पर
आसमाँ हैरत से तकता ज़मीं की ओर
और ज़मीन पूछती है उनसे

उनकी अनभिज्ञता का अर्थ अज्ञानता नहीं
और चुप्पी का मतलब नहीं वह सच मान लेना
जो विज्ञापित है ज्ञान के अर्थ में

उनके नासापुटों में है जंगल हुई बस्तियों की गन्ध
गीली मिट्टी के निशान उनके हाथों पर
किताबों की मशाल है उनके पास और ज्ञान की आँख
कुछ कुदाल फावड़े खुरपियाँ ब्रश और ब्लोअर
पतली मोटी जालीवाली छन्नियाँ कपड़े की कुछ थैलियाँ
कैमरे कागज़ कलम और एक दृष्टि
जो माइक्रोस्कोप से भी अधिक सूक्ष्म देख सकती है
जिसकी गहराई में अध्यात्म और विज्ञान से आगे की बात है
कि अंत का अर्थ सब कुछ समाप्त हो जाना नहीं
और भविष्य के लिए प्रस्थान बिंदु है विगत का हर एक क्षण

संवेदना की एक पुकार उठती है जीवन की मृत देह से
कि साँसों के उखड़ने और दिल के न धड़कने के बावज़ूद
अब भी सुरक्षित है उसकी चेतना मस्तिष्क के किसी कोने में
और उसे मृत घोषित किया जाना अभी बाक़ी है