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चितारोहण / माद्री / तेजनारायण कुशवाहा

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पोखरी में अधमुंदलोॅ पुरैन नैन
खुललोॅ कुमुदिनी कली ढुकतें रैन

फूल-फल सें भरलों लदलोॅ विपिन
मन उसकावै रहै मदन के दिन

डारी-डारी कुहू-कुहू कोइली कुहकै
चम्पा चमेली गेन्दा मौलसिरी महकै

आमी गाछी तर्हें पतै लठ-लठ करै
गोड़ के परते गोड़ चट-चट करै

घर्हें बच्चा-बुतरून चुलबुल करै
कुंज-कुंजचिरैं कुल कुल-कुल करै

मौसम के संग गहगह मठ करै।
सुग्गा अनार लेली सुग्गी से हठ करै।

मंद-मंद शीतल सुगन्ध वायु बहै
बांटै बायन काम-रति के खिस्सा कहै

तपसी-तपस्विनी के मन हिलै-डुलै
खुलै की यौवन ऋतु रंग संग मिलै

पांडु कुमार सिनी के संग लै कानन
मौसम मेला देखैले वसंत-आंगन

आश्रम सें दूर कुन्ती गेलोॅ रहै काहीं
छोटकी रानी घरें अकेले पांडु पाहीं

चम्पाव ली सिरसी के छरहरी देह
काम बसै रतिरानी वसंत के गेह

प्रकृति पेन्हिये रंग-विरंग वसन
पांडु के मोहकै मोहकै जन-विजन

विमोहित मन के खींचकै माद्री-रूपें
पांडु थोड़े खिसकलै माद्री-भीरीं चूपें

पांडु-मन हिललै हेरि माद्री जवान
पेन्हने रहै वैं झीनोॅ-झीनोॅ परिधान
उसकैलकै पांडु के केरा नाकी जांघें
मोहक हंसी/कामें लागलै सीमा लांघे

‘तोरा नाकी लागौं देवि सांझ सुहावन
दोन्हू मिलि रति रंग रंगोॅ लुभावन

तोरा रङ् तोहीं हे न´् तोरोॅ उपमान
पूर्हें मन देहीं गे गोरी जोबन दान।

मौसम में एक बेरी मिलोॅ अंग-अंग
खेलैलेॅ दहोॅ हे रानी उगलोॅ पतंग

संगम करोॅ हे देवि’,
‘ई न´् होथौं पिया
अनहोनी बात सें कांपै छौं मोर जिया।’

‘अभिशाप के मरन में कैन्हों जीवन
कहै छियों सचे रानी लागै न´् नीमन!

बाट-बटोही के दैगाछें पाकलोॅ आम
शुभांगी दहोॅ तहूं रूप आजु के साम!’

नाश के घरी चूकै न´् निठुर नियति
आन्हें-मुन्हें ढाहै पहाड़-सम विपति

बांही खीचकै कोरा भरकै लिपटैलै
थर्रैले माद्री हुन्ने शत शृंग हिललै

हहरैलै वन टूटतें गाछी-पत्ता के
सरदें मारकै माद्री के पान लता के।

विलपै लागलि भ्ूामि शव सें लिपटि
माद्री कानै आपनोॅ करेजोॅ पीटि-पीटि

रोतें-कानतें दीदी के करकै पुकार
दौड़ली जुमली कुन्ती सुनि चीत्कार

शव पर गिरलै करतें हाहाकार
पति गुण मने पारि, पारि के भोकार

-‘जितेन्द्रिय राजा के गे रहलों बचैतें
रक्षा-लेली देवता के रहलों मनैतें

तोहें बचैतिहोॅ कैन्हें हुनका रिझैलोॅ
माद्री के कैन्हें सुन्नोॅ में हुनका लुभैलोॅ!

रहै छेलोॅ मृगशाप सें हुनी उदास
फनु कैसें तोरा देखि जागलै हुलास?

शाप-कथा जानतें होलोॅ राजविहंग
तोरा संग माद्री गे कैलकोॅ अभिसंग

केना भेलों माद्री गे?’
बोललै झकझोरी
फफकी-फफकी कहकै मद्र किशोरी

-‘की कहिहों हेदीदी हम्में बहुत रोकलों
मृग-अभिशाप-कथा खोली केॅ बोललों

दीदी, घिघियैलों गोड़ परलों सौ बार
सच कहों जबरन करकौं उघार

दैया रे दैया फुटलोॅ हमरोॅ कपार
बाबू हो भैया हो भेलों दुनियां उजार।

संगे-संगे रहौं वासना सें दूर हटि
मार के मारी भगैलों तीनों गोटा डटि

जौनी भयें भागलोॅ यही ठाम गोसैंयां
है की भेलों आय? होलों बदनाम सैयां

खाड़ोॅ-खाड़ोॅ रोवै हेरोॅ शीशम चिनार
सागौन संगें रोवै शत शृंग पहार

कानै गाछियो प द्विज कपसी-कपसी
आश्रम के जीव-जनतु हपसी-हपसी

गेलोॅ कहां छोड़ि शतशृंग शैलवन
दियै न´् पारलों अंत समय जीवन

ई कौन्तेय युधिष्ठिर भीम आ अर्जुन
सुघर नकुल सहदेव लोर बुन

बिलखि-बिलखि कानै छों बाल-बुतरू
चुप के करैतों देतों कीनी के तुतुरू?

कैसें नुनु बाबू के बुझैबो समुझैबों
हस्तिनापुर में आबेॅ कैसें मूं देखैबों

जैबों हस्तिनापुर केना ले नैना लोर
जागोॅ जागोॅ संग चलोॅ राखोॅ पति मोर

तोरा बिनु लागों स्वामी संसार अन्हार
केना के सहबों स्वामी ई संसार-भार

नारी के पूजा, शक्ति-साधना नित धारेॅ
नारी ऋण कव्वो न´् चुकैलोॅ जाबेॅ पारेॅ

भविष्य सवांरै नारी-पूजा-उपासना
वर्तमान में सुख दै शक्ति-आराधना

नारी श्रद्धा विनयिता नारी उपासना
नारी शक्ति नारी भक्ति नारी आराधना

गृहस्थ के नारी नींव गृहस्थ के घर
गृहस्थ के सेवा धर्म, रूप मनोहर

पति के सन्मति दै लानै सन्मार्ग पर
देश के निर्मात्री छै लानै आदर्श पर

नारी के देह श्रम मन से ज्ञान जागै
देह के चाहे मनोॅ के आघात न´् लागै

न´् कोय निजी सम्पति नहियें वस्तु भोग
आपनोॅ सत्ता नारी के न´् मरोड़ै योग

मन सें उगलोॅ ई नारी बाग-बगैचा
सोचैं के जोग/नारी न´् उधार न´् पैंचा

महाशक्ति विधि तोरी शक्ति आरोॅ बेटी
निरपराधिनी के कैन्हें लेलोॅ समेटी!

दोष करै पुरुष सजा भुगतै नारी
कैन्हों ई विधान विधि यहेॅ दुख भारी

मानौं, विधि हिनका सें भेलों अपराध
अधिकार की तोरोॅ छिनलोॅ मोर साध

सृजन-नियम पर फनु सें विचारोॅ
नारी के अस्तित्व लेली कानून सुधारोॅ

नारी बिनु सृष्टि-रचना न´् हुवेॅ पारेॅ
वहेॅ नारी के चललोॅ जड़ें से उजारेॅ

वहेॅ नारीके चललोॅ जड़ें से उखारेॅ
संसार के सुन्दर मूरत के मिंघारेॅ?

दुनियांरोॅ फूल नारी फूल कुम्हिलाय
हे विधाता आगू सें राखोॅ फूल उगाय!

राजा हे कौने बोलतै समता के भाषा
मेटतै के लिंग भेद पाटतै निराशा?

संध्यारोॅ बेला भेलों नभ बरलै दिया
जागोॅ-जागोॅ पिया कैन्हें छछनाबोॅ जिया?’

ठोर कानै रहै मेहा झरै झर झर
हवा सुखावै रहै अंगिया तरवर।

‘यमराजा ई नारी की बिगारकों तोरोॅ
बिगारकों जौ कुछु तेॅ लेन्हें चलोॅ जौरोॅ!’

कुन्ती कहकै माद्री सें...
‘सुनो छाटी रानी
सभ्भेटा कुमार लेली जा तों राजधानी

अधिकार जेठी के हम्मे जेठ वामांग
गमन करबों गे स्वामी संगे सरंग

बाल-बुतरू के देखोॅ-भालोॅ रही लोक
पतिसंग चिता लगी जैबोॅ परलोक।’

‘दीदी ई न´्/स्वर्ग जैबोॅ हम्में पति संग
वाहीं अघैबोॅ पाबी हुनकोॅ अभिसंग

आसक्त भै, गेलोॅ करी अपूर्ण संवास
हुनकोॅ आस पुरैबोॅ वहां करी बास

यहां रही पालोॅ दीदी पांचो पांडव के
सुख-सौरभ के भारत के गौरव के।’

तखने ऋषि-महर्षि पांडव आर के
बोध दै हलुक करकै दुख-भार के

ऋषियें कहकै-

‘दोन्हू गोटा जिन्दा रहोॅ
बाल-बुतरू के देखोॅ सुनोॅ शिक्षा दहोॅ

अकथ्य रानी मृत्यु के कविता-कहानी
कहै न´् पारै कोय लिखी केॅ या जवानी

संसार के सच/मृत्यु महाकविता के
भेद कहै पारेॅ यम, पुत्र सविता के

सुन्दर असुन्दर जड़-चेतन आर
मृत्यु सब कुछ लीलै, असार संसार

नारी केरोॅ धर्म पति के यश जोगबोॅ
बच्चा पर ऐलोॅ बिघिन बाधा रोकबोॅ

पति संग सती होबोॅ बेटा ले संताप
नारी ले ई नियम शाप की अभिशाप

महाराजा धृतराष्ट्र केरोॅ कुविचार
जानै छोॅ तोरो सिनी हुनको सौ कुमार

अबोध सीधोॅ सादोॅ छों ई पांडुकुमार
धृतराष्ट्रें भगैतों देतों की अधिकार?

निज प्राण तेजैरोॅ दोन्हू छोड़ोॅ निश्चय
तोरे रहलें सें पैतों पांडव विजय

छोड़ोॅ पति संग लगि जरबोॅ विचार
दोनों गोटा मिलि रहोॅ सहोॅ दुख-भार

लोक में रही पति के सभे सुख दहोॅ
सुलच्छनि हे, नारी के आचरण गहोॅ।’

से समय आहूत एक शोक-सभा में
शतशृंग पर चैती पूनो के प्रभा में

ऋषि-मुनि, दोन्हू रानी, आरो सभे मिलि
शोक व्यक्त करकै देलकै श्रद्धांजलि

तापस के शव पर चढ़ाय चन्दन
मौन धरकै करकै ईश के भजन।

‘दीदी हे तोरा में छों बच्चा पोसै के गुण
तोरा नाकी कोय न´् सचे, नारी निपुण

कुन्तिभोज नरेशें वृष्णि वंश के लोगें
मान-आदर दै छों, वै देतों सहयोग

अनुगमन पति के चाहै छी करै लेॅ
अतृप्त संगम-सुख चाहै छी भरै लेॅ।

जांव पति लोक आज्ञा दहोॅ महारानी।’
एॅतना कही के गोड़ लागकै कल्यानी

आपनोॅ दोन्हू बेटा के कुन्ती के सौंपकै
कुन्ती संगें सभ्भे बच्चा के माथोॅ चूमकै

‘कुन्ती माय छेकों हम्में तेॅ रहलोॅ धाय
चारो भाय के बाबू धर्म सेॅ बड़ोॅ भाय

सभ्भे भाय मिलि-जुलि पढ़ोॅ लिखोॅ खेलोॅ
अच्छा काम करोॅ कुरूकुल यश लेलोॅ

हिनकोॅ बात मानी केॅ करोॅ कोय काज
खुशी रहै देश खुशी सगठें समाज।’

महारानी के नैन भेलै लोर-सलोर
‘पति के संगम हुवेॅ मन पूरेॅ तोर

जाहोॅ संग-संग पति के अनुगामिनि
रहोॅ अनन्त बरिस तांय हे भामिनि!’

‘धन्यावद दीदी, बड़ोॅ लोगों के प्रणाम
लाख बरिस जियोॅ नुनु बाबू ललाम!’

कहिये माद्री बैठली थोड़ोॅ लै उमंग
चिता के आगिन पर पति शव संग।