भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी यादों का वह गाँव! / शम्भुनाथ तिवारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:16, 4 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शम्भुनाथ तिवारी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी यादों का वह गाँव!

सुबह सुनहली किरन फैलती,
सोने की साड़ी हो जैसे।
जिसे पहनकर धरती रानी,
रूप बदलती कैसे-कैसे।
अँधियारा सरपट भग जाता,
कहीं न मिलता उसको ठाँव!
मेरी यादों का वह गाँव!

मंदिर का घंटा बजते ही,
चल पड़ती बच्चों की टोली।
घूम-घूमकर बाग–बगीचे,
करते रहते हँसी–ठिठोली।
अगर थक गए चलते–चलते,
बैठ गए बरगद की छाँव!
मेरी यादों का वह गाँव!

हम बच्चे छुट्टीवाले दिन,
अक्सर जाते नदी किनारे।
आसमान में ताका करते,
उड़ती चिड़ियाँ पंख पसारे।
बीच नदी में भी हो आते,
कभी–कभी ले डोंगी नाँव!
मेरी यादों का वह गाँव!

बगिया-ताल लदे फूलों से,
खेतों में फैली हरियाली।
भँवरे मस्त झूमते ऐसे,
मानो रस की गागर पाली।
कोयलिया की कूक मधुर थी,
कर्कश था कौवे का काँव!
मेरी यादों का वह गाँव!

शहर भले हों कुछ भी लेकिन,
गाँवोंवाली बात कहाँ है?
दादी–नानी के किस्सों में,
कट जाती जो रात कहाँ है?
काश, कहीं ऐसे हो पाता,
शहर सभी बन जाते गाँव!
मेरी यादों का वह गाँव!