कुछ छोटी कविताएं / जयप्रकाश मानस
हमारे घर
हमारे घरों में
जितना पसरा है गाँव
उससे अधिक पसर गया है शहर
जितने है शीतल जल के घड़े, उससे अधिक प्यास
जितनी खिड़कियाँ, दीवारें कहीं अधिक
जितनी हैं किताबें, कहीं अधिक दीमक
जितने भीतर उनसे ज़्यादा बाहर
जितने हैं असुरक्षित हम हमारे घरों में
उससे ज़्यादा सुरक्षित
हमारे घर सपनों में हमारे
छाँव-निवासी
धूप की मंशाएँ भाँपकर
इधर-उधर, आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ
जगह बदलते रहते
दरअसल
पेड़ से उन्हें कोई लगाव नहीं होता
अन्ततः
बाहर से लोहूलुहान
आया घर
मार डाला गया
अन्ततः
जुगनू
जब सूरज मुँह ढँककर सो जाता है
जब चाँद शर्म से दुबक जाता है
जब अनगिनत सितारे एक-एककर हो जाते हैं ग़ायब
जागते रहते हैं सिर्फ़ जुगनू
सूरज चांद सितारे भले ही न बना जा सके
जुगनू तो बना ही जा सकता है
पहाड़
आँधी-तूफ़ान
वर्षा-शीत-घाम
हर हाल में
सिर्फ वही रहे
अडिग अविचल
शिखर पर
लाँघनी पड़ती है
पगडंडी
बग़ैर लहूलुहान पाँवों से
अकेले ही
ख़ूंखार जंगल
दुर्गम पहाड़ियाँ
अँधेरी गुफाएँ
प्राणघाती घाटियाँ
यूँ ही कोई
नहीं पहुँच जाता शिखर पर
चयन
दोनों तरफ
मिल सकता है सुख
इधर अकेले में
जिन्हें नहीं करनी पड़ती कोई लड़ाई
उधर लड़ाई में
शामिल होना पड़ता है
सबके साथ
भीतर-ही-भीतर
रास्ते का चुनाव
तुम्हें करना है