भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढक्कन शीवर का / मुकेश कुमार सिन्हा
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:01, 4 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश कुमार सिन्हा |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ढक्कन सीवर का
भीमकाय वजन के साथ
ढके रहता है, घोर अँधेरे में
अवशिष्ट! बदबूदार!! उफ़!!
जोर लगा के हाइशा!
खुलते ही, बलबलाते दिख पड़े
कीड़े-पिल्लू! मल-मूत्र!
फीता कृमि! गोल कृमि आदि भी!!
रहो चिंतामुक्त!
नहीं बैठेगी मक्खियाँ नाक पर
आज फिर 'वो' उतर चुका है
अन्दर! बेशक है खाली पेट
पर, देशी के दो घूँट के साथ
वो आज फिर लगा है काम पर!!
सेठ! अमीर! मेहनतकश! किसान!
सभी अपने मेहनत का शेष
रखते हैं तिजोरी में!
एक लॉकर ये भी
शेष अवशेष का
कर रहा था, बेचारा हाथ साफ़
सडांध और दुर्गन्ध के बीच
चोरों की तरह, नशे के साथ
खाली पेट! दर्दनाक!!
आखिर भूख मिटानी जरुरी है
है न!