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इधर बहुत दिन हुए / जयप्रकाश मानस

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इधर बहुत दिन हुए

पगडंडियों में चला नहीं

नीम महुआ चिरौंजी जैसे कुछ शब्द

भेजे नहीं लिफाफे में

महक कहाँ पाया अपनी ही क्यारी में

सुलगा नही सका आग

ठूँठ और तूफ़ान में उखड़े दरख़्तों की पीड़ा

पढ़ी भी नहीं

सच की धूप से भागता रहा

नए ज़माने के पढ़े-लिखे छोकरों की तरह


रीढ़ की हड्डी को तानकर

रख पाया नहीं कभी

आत्महंता प्रश्नों को टालता रहा हर बार

एक भी बार

न चीखा न चिल्लाया

जैसे रहा हो कहीं रेहन में

तारीख़ों को बदलने की कहाँ की हरकत

सपने तो जैसे भूल गया देखना

किसी खूँटे से बँधे ढोर की तरह

एक ही परिधि के भीतर

लील रहा है घास


इधर बहुत दिन हुए

उन्हें एक आला सरकारी अफ़सर कहा जाता है