भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऐसे में तुम / जयप्रकाश मानस
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:55, 3 मार्च 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश मानस |संग्रह=होना ही चाहिए आंगन / जयप्रकाश मा...)
रोटी देखते ही
दीखने लगे
खलिहान
खलिहान में पसीने से तर-बतर पिताजी
गेहूँ से कंकड़ बीनती माँजी का बुझा हुआ चेहरा
तर रही तवा-सी पत्नी
चिट्ठी पहुँचते
मन टटोलने लगें
बालसखाओं की ठिठोलियाँ
उत्सव के दिन धमा-चौकड़ी
नदी-तट पर चहल-पहल
सूरज ढ़लते ही
इर्द-गिर्द उगने लगे
चप्पे-चप्पे तक अकाल की गहराती छाया
बुरे समय का आतंक
ज़हरीली ख़ामोशी श्मशान मानिंद
ऐसे में तुम ऐसे में तुम सीधे चले आना
उजली झील को लाँघकर
तरई के पार